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________________ 卐卐卐卐卐業業卐業業卐業業卐券 आचार्य कुन्दकुन्द * अष्ट पाहुड़ भावार्थ ऐसा जो बहिरात्मा का भाव है उसको छोड़ना ।। 8 ।। उत्थानिका स्वामी विरचित आगे कहते हैं कि 'मिथ्याद ष्टि अपनी देह के समान दूसरे की देह को देखकर उसको दूसरे की आत्मा मानता है' : णियदेहं सारित्थं पिच्छिऊण परविग्गहं पयत्तेण । अच्चेयणं पि गहियं झाइज्जइ मिच्छभावेण ।। १ ।। निजदेह सदश देह पर की, देख अति ही प्रयत्न से । जड़ रूप है तो भी उसे, वह ध्यावे पर की आत्मा । । १ । । अर्थ मिथ्याद ष्टि पुरुष अपनी देह के समान दूसरे की देह को देखकर, यह देह अचेतन है तो भी मिथ्याभाव के द्वारा उसे आत्मभाव से ग्रहण करके बड़े यत्न से उसे पर की आत्मा ध्याता है। भावार्थ बहिरात्मा मिथ्याद ष्टि के मिथ्यात्व कर्म के उदय से मिथ्याभाव है सो जैसे वह अपनी देह को आत्मा जानता है वैसे ही पर की देह अचेतन है तो भी उसको वह 【卐卐糕糕 पर का आत्मा जानकर ध्याता है, मानता है और उसमें बड़ा यत्न करता है इसलिए ऐसे भाव को छोड़ना - यह तात्पर्य है ।।9।। उत्थानिका आगे कहते हैं कि 'ऐसी ही मान्यता से पर मनुष्यादि में मोह प्रवर्तता है : सपरज्झवसाएण देहेसु य अविदियत्थ अप्पाणं । सुदाईवि वट्टए ६-१५ मोहो ।। १० ।। 隱卐卐業業 糕蛋糕糕糕業業卐卐米
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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