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आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्ट पाहुड़
उत्थानिका
स्वामी विरचित
वहाँ प्रथम ही आचार्य मंगल के लिए परमात्मा देव को नमस्कार करते हैं :
णाणमयं अप्पाणं उवलद्धं जेण झडियकम्मेण ।
चइऊण य परदव्वं णमो णमो तस्स देवस्स ।। १।।
निज ज्ञानमय आत्मा को पाया, कर्म सबका नाशकर ।
अरु त्यागकर परद्रव्य को, मैं नमूँ-नमूँ उस देव को । । १ । ।
अर्थ
आचार्य कहते हैं कि 'जिसने परद्रव्यों को छोड़कर 'झड़ितकर्म' अर्थात् खिरे हैं
द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म जिसके ऐसा होकर ज्ञानमयी आत्मा को पाया - ऐसे
देव के लिए हमारा नमस्कार हो, नमस्कार हो ।' दो बार कहने से अति प्रीतियुक्त भावों का बोध कराया है।
भावार्थ
यहाँ मोक्षपाहुड़ का प्रारम्भ है सो जिसने समस्त परद्रव्यों को छोड़कर एवं कर्मों
का अभाव करके केवल ज्ञानानंद स्वरूप मोक्षपद पाया उस देव को मंगल के लिए
नमस्कार किया सो यह युक्त ही है क्योंकि जहाँ जैसा प्रकरण होता है वहाँ वैसी योग्यता होती है। यहाँ भावमोक्ष तो अरिहंत के है और द्रव्य एवं भाव दोनों प्रकार
का मोक्ष सिद्ध परमेष्ठी के है इसलिए यहाँ दोनों को नमस्कार जानना । । १ । ।
उत्थानिका
आगे इस प्रकार नमस्कार करके ग्रंथ करने की प्रतिज्ञा करते हैं :
णमिऊण य तं देवं अणंतवरणाणदंसणं सुद्धं ।
वोच्छं परमप्पाणं परमपयं परमजोईणं ।। २।।
जो परमपदथित शुध, अनंत वर, ज्ञान-दर्शन युक्त प्रभु ।
नम उन्हें परम योगीन्द्र हित, परमात्म का वर्णन करूं ।। २ ।।
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