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६-८२
क्रमांक विषय
पष्ठ १२. मिथ्याद ष्टि का लक्षण
६-७६ 9३. मिथ्याद ष्टि की ही स्वपरापेक्ष लिंग व रागी असंयत देव को वंदना, सम्यग्द ष्टि की नहीं
६-८० 9४. सम्यग्द ष्टि के जिनोपदिष्ट धर्म का आचरण, मिथ्याद ष्टि के नहीं
६-८० १५. मिथ्याद ष्टि का जन्म-मरण प्रचुर व दुःख सहस्त्राकुल संसार में संसरण
६-८१ 9६. सम्यक्त्व के गुण और मिथ्यात्व के दोषों का विचार करके सम्यक्त्व में रुचि करने का संकेत
६-८२ 9७. बाह्य परिग्रहमुक्त पर मिथ्याभावयुक्त निर्ग्रन्थ के मौनादि बाह्य
क्रियाओं की व्यर्थता 98. जो मूलगुणों को छेदकर बाह्य कर्म करता है वह जिनलिंग का विराधक है
६-८३ 99. आत्मस्वभाव से विपरीत उपवास व आतापनयोग आदि बाह्य कर्म मोक्षमार्ग में कुछ भी नहीं करता
६-८४ १००. आत्मस्वभाव से विपरीत के श्रुत का बालश्रुतपना व चारित्र का बालचारित्रपना
६-८५ १०१-१०२. उत्तम स्थान प्राप्ति की पात्रता-वैराग्य, परद्रव्यपराङ्मुखता आदि-आदि
६-८६ १०३. तीर्थंकरादि भी जिसका ध्यान व स्तुति करते हैं ऐसे देहस्थ आत्मतत्त्व को जानने की प्रेरणा
६-८७ १०४-१०५. अरिहंतादि पंच परमेष्ठी व चार आराधना का आराधन आत्मा
ही की अवस्था हैं अतः आत्मा ही की मुझे शरण है ६-८५-८६ १०६. जिनप्रणीत मोक्षपाहुड़ के पढ़ने-सुनने व भाने का फल-शाश्वत सुख का लाभ
६-६० 2. विषय वस्तु ६-६८-६६ 5. गाथा चित्रावली ६-१०७-१२१ 3. गाथा चयन ६-१०१-१०२ 6. अंतिम सूक्ति चित्र 4. सूक्ति प्रकाश ६-१०३-१०६ मोक्ष पा० समाप्त ६-१२२
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