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पष्ठ
६-६४-६५
६-६६ ६-६७
६-६८
६-६६
६-७०
क्रमांक
विषय ७३-७५. शुद्धभाव से भ्रष्ट, सम्यक्त्व-ज्ञान रहित व संसार सुख सुरत
जीवों कथन-पंचम काल ध्यान के योग्य नहीं ७६. पंचम काल में आत्मस्वभाव में स्थित साधु के धर्मध्यान की
संभवता न मानने वाले अज्ञानी हैं ७७. आज भी रत्नत्रयधारी मुनि इन्द्र व लौकान्तिक देव होकर वहाँ
से च्युत हो निर्वाण पाते हैं ७४. जिनलिंग को धारण करके पाप करने वाले मोक्षमार्गी नहीं हैं ७१. परिग्रहासक्त, याचनाशील और अधःकर्मरत लिंगी मोक्षमार्ग से
च्युत हैं 80. परिषहविजयी, जितकषाय, निर्ग्रन्थ व मोहमुक्त ही
मोक्षमार्गस्थ है 8१. पर से अन्यत्व व आत्मा में एकत्व भावना वाला योगी शाश्वत
स्थान को पाता है 8२. देव-गुरु के भक्त, निर्वेद भावनायुक्त व ध्यानरत योगी
मोक्षमार्गस्थ हैं 8३. आत्मरत सुचारित्रवान योगियों को निर्वाण का लाभ 8४. ज्ञानदर्शन समग्र आत्मा को ध्याने वाला योगी पापहर व
निर्द्वन्द्व होता है 8५. मुनियों को उपदेश के अनन्तर श्रावकों के लिये संसारनाशक
एवं सिद्धि का कारण उपदेश कहने की प्रतिज्ञा 8६. श्रावकों का प्रथम कर्तव्य-सुनिर्मल एवं मेरुवत् निष्कम्प
सम्यक्त्व की प्राप्ति 8७. सम्यक्त्व के ध्यान की महिमा-दुष्टाष्ट कर्मप्रक्षय 88. अधिक कहने से क्या ! जो जीव सिद्ध हुए और होंगे उसे
सम्यक्त्व का माहात्म्य जानो 89. स्वप्न में भी सम्यक्त्व को मलिन न करने वाले उसके धारकों
की धन्यता, कृतार्थता एवं शूरता -9१. सम्यक्त्व का स्वरूप
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