________________
विषय
क्रमांक
५४. अज्ञानी - ज्ञानी का लक्षण
६-५०
६-५०
५५. मोक्षनिमित्तक राग भाव भी आस्रव ही का कारण ५६. स्वभावज्ञान में दूषण देने वाले अज्ञानी की जिनशासन दूषकता ६–५१ ५७. चारित्रहीन ज्ञान एवं दर्शनहीन तपयुक्त लिंगग्रहण से क्या सुख ६-५२ ५४. अचेतन को चेतन मानने वाला अज्ञानी और चेतन को चेतन मानने वाला ज्ञानी होता है
पष्ठ
६-५३
५१. ज्ञान व तप की संयुक्तता मोक्ष की साधक है, ये दोनों
पथक्-प थक नहीं
६०. तीर्थकर को भी तप से ही सिद्धि होती है अतः ज्ञानयुक्त होते भी तप करना योग्य है
69. अभ्यंतर लिंग से रहित बहिलिंगी आत्मचारित्र से भ्रष्ट व
मोक्षपथ का विनाशक है
६-५५
६-५६
६२. सुख से भाया हुआ ज्ञान दुःख आने पर नष्ट हो जाता है अतः तपश्चरणादि सहित आत्मा की भावना भाने का उपदेश ६३. आहार, आसन व निद्रा को जीतकर आत्मध्यान करने की प्रेरणा ६-५७ ६४. दर्शन - ज्ञान- चारित्र स्वरूप आत्मा ही ध्यान करने योग्य है ६-५७ ६५. आत्मा का जानना, भावना व विषयों से विरक्त होना उत्तरोत्तर दुःख साध्य है
६-५
६-५४
६-५४
६-५८
६६. जब तक विषयों में प्रवत्ति है तब तक आत्मज्ञान नहीं हो सकता ६-५६ ६७. आत्मज्ञान के बाद भी विषयविमुग्धता का दुष्परिणाम - संसार भ्रमण ६-५६ ६४. विषयविरक्तियुत आत्मज्ञान सहित उसकी भावना का फलचतुर्गति में भ्रमण का परिहार
६१. परद्रव्य में परमाणु मात्र भी मोहवश रति रखने वाला अज्ञानी है ७०. दर्शनविशुद्ध एवं विषयविरक्त आत्मध्यानियों की निर्वाणपात्रता ७१. परद्रव्य में राग से संसार होता है अतः योगी आत्मा ही की भावना करते हैं
६-६२
७२. निंदा - प्रशंसा, सुख-दुःख एवं शत्रु-मित्र में समभाव ही चारित्र है ६-६३
६-६०
६-६१
६–६१