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क्रमांक विषय
पष्ठ २७. ध्याता के मौन के हेतु का सयुक्तिक कथन
६-३० ३०. आत्मध्यान का माहात्म्य-कर्म का संवरपूर्वक नाश
६-३१ ३१. व्यवहार में सोने वाला स्वकार्य में जागता है
६-३१ ३२. योगी सर्व व्यवहार को छोड़कर परमात्मा को ध्याता है
६-३२ ३३. व्रत, समिति एवं गुप्ति से युक्त होकर ध्यान-अध्ययन करने
का उपदेश ३४. आराधक का स्वरूप व आराधना का फल-केवलज्ञान ६-३४ ३५. सिद्ध, शुद्ध, सर्वज्ञ व सर्वलोकदर्शी आत्मा की केवलज्ञानरूपता ६-३४ ३६. रत्नत्रय के आराधक के आत्मा का ध्यान और पर का परिहार ६-३५ ३४. रत्नत्रय का स्वरूप
६-३६ ३१. दर्शनशुद्धि से ही निर्वाण की प्राप्ति
६-३७ ४०. सम्यक्त्व का स्वरूप-रत्नत्रय के उपदेश को सार मानना ६-३८ ४१. सम्यग्ज्ञान का स्वरूप-जीव व अजीव का भेदज्ञान
६-३८ ४२. सम्यक् चारित्र का स्वरूप-पुण्य एवं पाप का परिहार ६-४० ४३. शक्ति के अनुसार तप के द्वारा संयत परम पद को पाता है ६-४१ ४४. परमात्मध्यान की पात्रता
६-४२ ४५. कषायरहित स्वभावयुक्त जीव उत्तम सुख पाता है
६-४३ ४६. विषय-कषाय से युक्त व परमात्मभाव से रहित जिनमुद्रा से पराङ्मुख जीव को सिद्धि का सुख नहीं
६-४३ ४७. जिनमुद्रा से अरुचि का फल-संसार में ही तिष्ठना
६-४४ ४४. परमात्मा को ध्याने वाला योगी नवीन कर्मों को ग्रहण नहीं करता ६-४५ ४७. दढ़ सम्यक्त्व व चारित्रवंत आत्मध्यानी निर्वाण पाता है ६-४६ ५०. चारित्र का लक्षण
६-४७ ५१. स्वभाव से शुद्ध जीव रागादि से युक्त होने के कारण अन्य रूप होता है
६-४७ ५२. देव-गुरु का भक्त और साधर्मी एवं संयत में अनुरक्त ही ध्यानरत होता है
६-४८ ५३. ज्ञानी की महिमा
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