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३३. मा जणरंजणकरणं बाहिरवयवेस मा कुसु ।। १० ।। अर्थ- मुनि! तू जनरंजन करने वाला बाह्य व्रत का भेष धारण मत कर। ३४. भावहि अणुदिण अतुलं विसुद्धभावेण सुयणाणं ।। १२ ।। अर्थ-उस अनुपम श्रुतज्ञान की तू प्रतिदिन विशुद्ध भाव से भावना कर । ३५. भावरहिण किं पुण बाहिरलिंगेण कायव्वं ।। १६ ।। अर्थ- शुद्धभाव रहित बाह्य लिंग से क्या कर्तव्य है अर्थात् कुछ भी नहीं । ३६. मेहुणसण्णासत्तो भमिओसि भवण्णवे
भीमे ।। 98।। अर्थ-मैथुन संज्ञा में आसक्त होकर तू इस भयानक संसार समुद्र में भ्रमण करता रहा है।
३७. भावसहिदो य मुणिणो पावइ आराहणाचउक्कं च ।। 99 ।। अर्थ-भावसहित श्रेष्ठ मुनि आराधना के चतुष्क को पाता है ।
३४. भावरहिदो य मुणिवर भमइ चिरं दीहसंसारे । । 99 ।। अर्थ - भावरहित मुनि दीर्घ संसार में चिरकाल तक भ्रमण करता है।
३१. पावंति भावसवणा कल्लाणपरंपराई सोक्खाई ।। १०० ।। अर्थ - भावश्रमण कल्याण की परम्परा सहित सुखों को पाते हैं ।
४०. दुक्खाइं दव्वसवणा णरतिरियकुदेवजोणीए । । १०० ।। अर्थ- द्रव्यश्रमण मनुष्य, तिर्यंच और कुदेवों की योनि में दुःखों को पाते हैं ।
४१. विणयं पञ्चपयारं पालहि मणवयणकायजोए ।। १०४ ।। अर्थ-मन-वचन-काय तीनों योगों से तू पाँच प्रकार की विनय का पालन कर । ४२. दुज्जणवयणचडक्कं णिट्ठरकडुयं सहति सप्पुरिसा ।। १०७ ।। अर्थ-सत्पुरुष दुर्जन मनुष्यों के निष्ठुर और कटुक वचन रूपी चपेट को सहते हैं । ४३. चिरसंचियकोहसिहिं वरखमसलिलेण सिंह ।। १०१ ।। अर्थ - चिरकाल से संचित क्रोध रूपी अग्नि को उत्तम क्षमा रूपी जल से तू सींच अर्थात् शमन कर । ४४. बाहिरलिंगमकज्जं होइ फुडं भावरहियाणं ।। १११ ।। अर्थ- शुद्धभाव रहित जीवों का बाह्य लिंग प्रगटपने अकार्यकारी है।
४५. परिणामादो बंधो मुक्खो जिणसासणे दिट्ठो ।। ११६ ।। अर्थ-बंध और मोक्ष परिणाम से ही होता है - ऐसा जिनशासन में कहा गया है।
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