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________________ अर्थ-जिनभावना अर्थात् सम्यग्दर्शन भावना से वर्जित नग्न दीर्घ काल तक सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र स्वरूप बोधि को नही पाता । २३. अयसाण भायणेण य किं ते णग्गेण पावमलिणेण । । ६१ ।। अर्थ-अपकीर्ति का भाजन और पाप से मलिन नग्नपने से तुझे क्या प्रयोजन ! २४. पयडय जिणवरलिंगं अब्भंतरभावदोस परिसुद्धो ।। ७० ।। अर्थ- हे जीव ! तू अभ्यन्तर भाव के दोषों से शुद्ध होकर जिनलिंग अर्थात् बाह्य निर्ग्रन्थ लिंग को प्रकट कर । २५. भावमलेण य जीवो बाहिरसंगम्मि मइलियइ ।। ७० ।। अर्थ-भावों की मलिनता से जीव बाह्य परिग्रह में अपने आपको मलिन कर लेता है। २६. धम्माणं पवरं जिणधम्मं भाविभवमहणं । । 8२ । । अर्थ- आगामी संसार का मथन करने वाला जिनधर्म सब धर्मों में प्रवर-श्रेष्ठ है । २७. मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो धम्मो ।। 8३ ।। अर्थ-मोह और क्षोभ से रहित आत्मा का जो परिणाम है वह धर्म है । २४. पुण्णं भोयणिमित्तं ण हु सो कम्मक्खयणिमित्तं ।। ४४ ।। अर्थ-पुण्य को ही जो धर्म जाने उसके पुण्य भोग का ही निमित्त है, कर्मक्षय का नहीं । 29. तं अप्पा सद्दहेह तिविहेण ।। 8७ ।। अर्थ - मन-वचन-काय से तुम उस आत्मा का श्रद्धान करो। ३०. जेण य लहेह मोक्खं तं जाणिज्जह पयत्तेण ।। ४७ ।। अर्थ- प्रयत्नपूर्वक उस आत्मा को तुम जानो जिससे कि मोक्ष को प्राप्त कर सको । ३१. भावय जिणभावणा णिच्चं ।। 88 ।। अर्थ - तू नित्य ही जिनभावना को भा । ३२. सयलो णाणज्झयणो णिरत्थओ भावरहियाणं ।। 89 ।। अर्थ-भावरहित मुनि का ज्ञान के लिए सकल शास्त्र का अध्ययन निरर्थक है। ५-१७६
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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