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अर्थ-भावलिंग से ही मुनि लिंगी होता है, द्रव्यलिंग मात्र से लिंगी नहीं होता। १२. भावेण होइ णग्गो बाहिरलिंगेण किं च णग्गेण।। ५४।। अर्थ भाव से ही नग्न होता है, बाह्य नग्न लिंग से क्या कार्य होता है अर्थात् कुछ भी नहीं। १३. कम्मपयडीण णियरं णासइ भावेण दव्वेण।। ५४।। अर्थ-भावसहित द्रव्यलिंग से कर्म प्रक ति के समूह का नाश होता है। १४. णग्गत्तणं अकज्जं भावणरहियं जिणेहिं पण्णत्तं।। ५५ ।। अर्थ भावरहित नग्नपना अकार्यकारी है-ऐसा जिनभगवान ने कहा है। १५. णिच्चं भाविज्जहि अप्पयं धीर!|| ५५।। अर्थ-हे धीर मुनि! तू नित्य ही आत्मा की भावना कर। १६. अप्पा अप्पम्मि रओ स भावलिंगी हवे साहू।। ५६।। अर्थ-जिसका आत्मा आत्मा में रत है वह भावलिंगी साधु होता है। १७. ममत्तिं परिवज्जामि णिम्ममत्तिमुवट्टिदो।। ५७।। अर्थ-मैं निर्ममत्व भाव में स्थित होकर ममत्व को छोड़ता हूँ। १४. आलंबणं च मे आदा अवसेसाई वोसरे।। ५७।। अर्थ-आत्मा ही मेरा आलम्बन है, अवशेष सभी रागादिक परिणामो को मैं छोड़ता हूँ। ११. एगो मे सस्सदो अप्पा णाणदंसणलक्खणो।। ५७।। अर्थ–मेरा आत्मा एक है, नित्य है और ज्ञान-दर्शन लक्षण वाला है। २०. पढिएण वि किं कीरइ किं वा सुणिएण भावरहिएण।। ६६ ।। अर्थ-भावरहित पढ़ने और सुनने से क्या कीजिए अर्थात् कुछ भी कार्यकारी नहीं है। २१. भावो कारणभूदो सायारणयारभूदाणं।। ६६।। अर्थ-श्रावकपना तथा मुनिपना-इनका कारणभूत भाव ही है। २२. णग्गो ण लहइ बोहिं जिणभावणवज्जिओ सइर।। ६8 ।।
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