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१. भावो हि पढमलिंगं ण दव्वलिंगं च जाण परमत्थं । । गाथा २ ।। अर्थ-भावलिंग ही प्रथम अर्थात् प्रधान लिंग है, द्रव्यलिंग को तू परमार्थ मत जान । २. भावो कारणभूदो गुणदोसाणं जिणा विन्ति ।। २।।
अर्थ- गुण और दोषों का कारणभूत भाव ही है-ऐसा जिनभगवान ने कहा है । ३. बाहिरचाओ विहलो अब्भंतर- गंथजुत्तस्स ।। ३ ।।
अर्थ - अभ्यंतर परिग्रह से युक्त जीव के बाह्य परिग्रह का त्याग विफल होता है ।
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४. भावरहिओ ण सिज्झइ जइ वि तवं चरइ कोडिकोडीओ । । ४।। अर्थ - भावरहित जीव कोड़ाकोड़ी संख्या काल तक भी तप करे तो भी उसके सिद्धि नहीं होती ।
५. बाहिरगंथच्चाओ भावविहूणस्स किं कुणइ । । ५ । । अर्थ - भावरहित के बाह्य परिग्रह का त्याग क्या कर सकता है अर्थात् कुछ नहीं ।
६. जाणहि भावं पढमं किं ते लिंगेण भावरहिण ।। ६ ।। अर्थ-भाव ही को प्रथम अर्थात् परमार्थभूत जान, भावरहित बाह्य लिंग से तेरे क्या साध्य है अर्थात् कुछ भी तो नहीं । ७. इय जिणवरेहिं भणियं तं रयणत्तयं समायरह ।। ३० ।। अर्थ-दर्शन - ज्ञान - चारित्र रूप रत्नत्रय का तू आचरण कर ऐसा जिनवरों ने कहा है ।
8. भावय सुमरणमरणं जरमरणविणासणं जीव ! ।। ३२ ।। अर्थ- हे जीव ! जरा-मरण का विनाश करने वाले सुमरण-मरण की तू भावना कर ।
9. भावविमुत्तो मुत्तो ण य मुत्तो बंधवाइमित्तेण ।। ४३ ।।
अर्थ - रागादि भावों से विमुक्त मुनि ही मुक्त है, जो बंधु बांधव तथा मित्र आदि से मुक्त है वह मुक्त नहीं कहलाता ।
१०. उज्झसुगंधं अब्भंतरं धीर ! ।। ४३ ।।
अर्थ- हे धीर मुनि ! तू अभ्यंतर की स्नेह रूप वासना को छोड़ । ११. भावेण होइ लिंगी ण हु लिंगी होइ दव्वमित्तेण ।। ४४ ।।
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