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गा० १४१– ́इय मिच्छत्तावासे...' अर्थ - इस प्रकार मिथ्यात्व के आवास इस संसार में कुनय सहित कुशास्त्रों से मोहित हुआ यह जीव अनादि काल से भ्रमण कर रहा है-ऐसा हे धीर मुनि ! तू विचार कर । । २१ ।।
गा० १४३–'जीव विमुक्को सवओ...' अर्थ-जीव रहित शरीर लोक में 'शव' कहलाता है, सम्यग्दर्शन से रहित प्राणी 'चलशव' अर्थात् चलता फिरता मुर्दा कहलाता है। इनमें से 'शव' तो इस लोक में अपूज्य है और 'चलशव’ परलोक में ।। २२ ।।
गा० १४४–'जह तारायण चंदो... अर्थ-जैसे ताराओं के समूह में चन्द्रमा और पशुओं के समूह में सिंह अधिक अर्थात् प्रधान है वैसे मुनि और श्रावक इन दो प्रकार के धर्मों में सम्यक्त्व अधिक है ।। २३ ।।
गा० १६४–'किं जंपिएण बहुणा... अर्थ- बहुत कहने से क्या ! धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष तथा अन्य जितने भी व्यापार हैं सो सर्व ही शुद्ध चैतन्य परिणाम स्वरूप भाव में ही समस्त रूप से स्थित हैं ।। २४ ।।
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