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पहले शुद्धात्मा का स्वरूप परद्रव्य से भिन्न बारम्बार भावना से अनुभव किया ऐसा जिसमें भाव है ऐसा निर्मल अर्थात् बाह्य मल रहित और शुद्ध अर्थात् अन्तर्मल रहित जिनलिंग है । । १३ ।।
गा० 8२–'जह रयणाणं... अर्थ-जैसे रत्नों में हीरा और बड़े वक्षों में बावन चंदन प्रवर है- श्रेष्ठ है वैसे सब धर्मों में आगामी संसार का मथन करने वाला जिनधर्म प्रवर है - श्रेष्ठ है । । १४ ।।
गा० ४४ - सहदि य.... अर्थ-जो पुरुष पुण्य को धर्म जानकर श्रद्धान करते हैं, प्रतीति करते हैं, रुचि करते हैं और स्पर्श करते हैं उनके वह पुण्य भोग का ही निमित्त होता है, कर्मक्षय का नहीं । । १५ ।।
' गा० 89 – 'बाहिरसंगच्चाओ...' अर्थ-भावरहित मुनि का बाह्य परिग्रह का त्याग; गिरि, नदी निकट, गुफा व कंदरा आदि में आवास और ज्ञान के लिए शास्त्रों का अध्ययन आदि सब निरर्थक है । । ।१६ ||
गा० १११ - 'सेवहि चउविहलिंगं...! अर्थ - हे मुनिवर ! तू अभ्यंतर लिंग की शुद्धि को प्राप्त होता हुआ वस्त्र त्याग, केशलोंच, स्नान त्याग एवं पिच्छिका धारण- इन चार प्रकार के बाह्य लिंगों का सेवन कर क्योंकि भावरहित का बाह्य लिंग प्रकटपने अकार्यकारी होता है । १७ ।। T
गा० ११9——णाणावरणादीहिं...' अर्थ - हे मुनि ! तू ऐसी भावना कर कि मैं ज्ञानावरणादि आठ कर्मों से वेष्ठित हूँ, अब मैं इनको भस्म करके अनन्त ज्ञानादि गुणस्वरूप चेतना को प्रगट करता हूँ । ।98 ।।
गा० १२२ - 'जे केवि दव्वसवणा....' अर्थ- जो कोई इन्द्रिय सुख में व्याकुल द्रव्यलिंगी श्रमण हैं वे संसार रूपी वक्ष को नहीं काट पाते परन्तु जो भावलिंगी श्रमण हैं वे ध्यान रूपी कुल्हाड़े से संसार रूपी वक्ष को काट डालते हैं।।११।।
गा० १३२ - 'उत्थरइ जा ण....' अर्थ- जब तक तेरे व द्धपना आक्रमण न करे, जब तक रोग रूपी अग्नि तेरी देह रूपी कुटी को दग्ध न करे और जब तक इन्द्रियों का बल न घटे तब तक तू अपना हित कर ले | | २० ||
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