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• गा० ४३ – भावविमुत्तो मुत्तो...' अर्थ - रागादि भावों से मुक्त ही मुक्त कहलाता है, जो बंधु-बांधव तथा मित्र आदि से मुक्त है उसको मुक्त नहीं कहते- ऐसा जानकर हे धीर मुनि ! तू अभ्यन्तर की वासना को छोड़ । । ५ । ।
गा० ४७- 'सो णत्थि तं ....' अर्थ - इस संसार में चौरासी लाख योनि के निवास में ऐसा एक भी प्रदेश नहीं है जिसमें इस जीव ने द्रव्यलिंगी श्रमण होकर भी भ्रमण न किया हो । । ६ । ।
गा० ४४ - 'भावेण होइ लिंगी....' अर्थ-भावलिंग ही से लिंगी होता है, द्रव्यमात्र से लिंगी नहीं होता इसलिए भावलिंग ही धारण करना, द्रव्यलिंग से क्या कार्य सिद्ध होता है ! ।।७।।
• गा० ५४ - 'भावेण होइ णग्गो....' अर्थ-भाव से नग्न होता है, बाह्य नग्न लिंग से क्या कार्य होता है अर्थात् कुछ भी नहीं होता । भाव सहित द्रव्यलिंग से कर्म प्रति के समूह का नाश होता है ।। 8 ।।
गा० ५६–'देहादि संगरहिओ....' अर्थ-जो शरीरादि परिग्रह से रहित है, मान कषाय से सब प्रकार मुक्त है और जिसका आत्मा आत्मा में रत है वह साधु भावलिंगी होता है | 19 |
गा० ६६–'पढिएण वि किं...' अर्थ-भावरहित पढ़ने और सुनने से क्या होता है अर्थात् कुछ भी कार्यकारी नहीं है। श्रावक तथा मुनिपने का कारणभूत भाव ही है ।। १० ।।
गा० ६४– ́णग्गो पावइ दुक्खं ....' अर्थ - जिनभावना से रहित नग्न दीर्घ काल तक दुःख पाता है, संसार समुद्र में भ्रमण करता है और बोधि अर्थात् रत्नत्रय को नहीं पाता ।।११।।
गा० ७३ - 'भावेण होइ णग्गो....' अर्थ-पहले मिथ्यात्व आदि दोषों को छोड़कर भाव से अन्तरंग से नग्न होकर पीछे मुनि द्रव्य से बाह्य लिंग जिन आज्ञा से प्रकट करे यह मार्ग है । । १२ ।।
गा० 89 - पंचविहचेलचा .... अर्थ-जहाँ पाँच प्रकार के वस्त्रों का त्याग है, भूमि पर शयन है, दो प्रकार का संयम है, भिक्षा भोजन है, भावितपूर्व अर्थात्
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