________________
---------------------------
----
-
HOM
EOF
गाथा २-'भावो हि पढमलिंग.... अर्थ-भाव ही प्रथम अर्थात् प्रधान लिंग है, द्रव्यलिंग को तू परमार्थ मत जान । गुण और दोषों का कारणभूत भाव ही है-ऐसा जिन भगवान ने कहा है।।१।। गा० ३-'भावविसुद्धिणिमित्तं....' अर्थ-बाह्य परिग्रह का त्याग भाव की विशुद्धि के लिए किया जाता है। अभ्यन्तर परिग्रह से युक्त जीव के बाह्य परिग्रह का त्याग निष्फल है।।२।। गा० 8-'भीसणणरयगईए....' अर्थ-हे जीव! तूने भीषण नरक गति में, तिर्यंच गति में तथा कुदेव और कुमनुष्य गति में तीव्र दुःख पाये हैं अतः अब तू जिनभावना को भा।।३।। गा० ३०-'रयणत्तयसु अलद्धे.... अर्थ-हे जीव! इस प्रकार रत्नत्रय की अप्राप्ति से तू इस दीर्घ संसार में भ्रमा है, ऐसा जानकर अब उस रत्नत्रय का आचरण कर-ऐसा जिनवरों ने कहा है।।४।।
५-१७३