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________________ 12002 अनुप्रेक्षाओं को, तेरह प्रकार की क्रियाओं को, पाँच महाव्रतों की पच्चीस भावनाओं को, अठारह हजार भेद रूप शील और चौरासी लाख उत्तरगुणों को निरन्तर भाना चाहिए। ऐसी भावना करनी चाहिए कि मैं ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों से वेढ़या हूँ-आच्छादित हूँ, अब इनको भस्म करके अनन्तज्ञानादि गुणस्वरूप निज चेतना को मुझे प्रकट करना चाहिए और जब तक शरीर में व द्धपना व रोग न आवे और इन्द्रियों का बल रहे तब तक अति शीघ्र अपना हित कर लेना चाहिए। इस प्रकार इस पूरे भावपाहुड़ में जीव को जिनभावना अर्थात् सम्यक्त्व भावना भाने का, स्वभाव प्राप्ति का वा शुद्धभाव के सन्मुख होने का ही मुख्यतया उपदेश दिया गया है। आचार्य कहते हैं कि अशुद्ध भाव से तंदुल मत्स्य तुल्य जीव भी नरक चला जाता है और विशुद्ध भाव से यह जीव रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग के सन्मुख हो जाता है-ऐसा जानकर जीव को विशुद्ध भावपूर्वक शुद्धभाव के, धर्म के सन्मुख होना चाहिए परन्तु पुण्य को धर्म मानकर सेवन नहीं करना चाहिए। पूजा आदि व व्रतादि तो पुण्य है और मोह-क्षोभ रहित आत्मा का शुद्ध परिणाम धर्म है। जो शुभ क्रिया रूप पुण्य को ही धर्म जानकर श्रद्धान करता है, रुचि करता है, प्रतीति करता है उसके वह पुण्य भोग का ही निमित्त होता है, कर्मक्षय का नहीं। कर्मक्षय के लिए, मोक्षमार्ग की प्राप्ति के लिए तो शुद्ध आत्मा को ही इष्ट जानकर अंगीकार करना चाहिए, शुद्धभाव के अनुकूल शुभ परिणाम करने चाहिए और अशुभ परिणामों का सर्वथा परिहार करना चाहिए-यही सम्पूर्ण भावपाहुड़ का हार्द है। KON UNMAN SA कर RANI समाप्त ** ** ** ** ५-१७२
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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