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भ्रमण करके दुःख ही दुःख पा रहा है इसलिए तीन सौ तरेसठ पाखंडियों के मार्ग को छोड़कर अब जिनमार्ग में अपना मन स्थिर करना चाहिए। सम्यग्दर्शन रहित प्राणी चलता हुआ म तक है। मुनि व श्रावक दोनों प्रकार के धर्मों में सम्यक्त्व ही अधिक है, ऐसा जानकर गुण रूप रत्नों में सारभूत और मोक्ष मंदिर का प्रथम सोपान सम्यग्दर्शन भाव से धारण करना चाहिए। सम्यग्दर्शन के लिए सर्वप्रथम मिथ्यात्व को छोड़ने का छह अनायतन के त्याग का, जिनाज्ञा पालन कर चैत्य, प्रवचन व गुरु की भक्ति करने का और मन-वचन-काय शुद्ध करके जीवादि तत्त्वों की व नौ पदार्थ, चौदह जीवसमास, चौदह गुणस्थान आदि की भावना भाने का उपदेश है। सम्यग्ज्ञान के लिए श्रुतज्ञान को सम्यक् प्रकार भावशुद्धि से निरन्तर भाना चाहिए।
सम्यक्चारित्र के लिए छह काय के जीवों की दया करने का और उसके लिए अशुद्ध आहार के त्याग का नौ प्रकार के ब्रह्मचर्य को भावों में प्रकट करने का, दुर्जनों के निष्ठुर व कटुक वचन रूपी चपेट को सहने का और चिरकाल से संचित क्रोध रूपी अग्नि को उत्तम क्षमा रूप जल से बुझाने का मन-वचन-काय से विनय को पालने का नौ नोकषाय के त्याग का, इन्द्रियों को जीतने का व ज्ञान रूपी अंकुश से मन रूपी मतवाले हाथी को वश में करने का, बाईस परिषहों को सहने का, चार संज्ञाओं के अभाव करने का, वैयावत्ति का गुरु के सामने दोषों की सरलता से गर्हा करने का और पूजा - लाभादिक को न चाहते हुए उत्तरगुणों के पालने का उपदेश है। साथ ही साथ बारह प्रकार के तप का भी आचरण करना चाहिए।
आर्त-रौद्र ध्यान को छोड़कर धर्म-शुक्ल ध्यान को ध्याना और भावनाओं का भाना भावशुद्धि का बड़ा उपाय है। सर्व जीवों में व्यापक महासत्त्व चेतनाभाव को भाना चाहिए । अनित्य आदि बारह
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