________________
SON
WDNA
फिर इन सब कथनों का आशय गाथा ११३ के ही भावार्थ में पं० जी ने दिया है कि ऐसा तो न जानना कि इनका (शुद्धात्मा के अनुकूल समस्त व्यवहार का) बाह्य में करने का निषेध है। ये भी करने और भाव शुद्ध करना-यह आशय है और केवल पूजालाभादि के लिए, अपनी महंतता दिखाने के लिए करे तो कुछ फललाभ की प्राप्ति नहीं है।
इस प्रकार एक तो, जहाँ पर भी जिस भी प्रकरण में ग्रंथकार ने जिस अभिप्राय को लेकर वर्णन किया हो उसका यथावत् अर्थ हमें समझकर ग्रहण करना चाहिए, अन्यथा अर्थ न लेना चाहिए नहीं तो हमें लाभ के स्थान पर हानि ही होगी। पं. जयचंद जी ने ही 'द्रव्यसंग्रह' की वचनिका करते हुए तीसरे अधिकार की तीसरी गाथा के भावार्थ में कहा है-'स्याद्वाद जैनागम की कथनी अनेकरूप अविरोध जानना। विवक्षा जहाँ जैसी हो वैसी समझ लेना।'
दूसरे, जिस भी अपेक्षा को लेकर जहाँ कथन किया गया हो उस अपेक्षा को हमें द ष्टि व ज्ञान में रखना चाहिए और उस आपेक्षिक कथन को एकान्तिक सत्य नहीं मान लेना चाहिए अन्यथा हम सत्य से भटक सकते हैं। अन्य कथनों के साथ संगति बैठाकर ही प्रत्येक कथन की यथार्थता को हमें जानना चाहिए।
द्वितीय विभाग-गाथा ६१ से १६५ तक भीतर के दोषों को मिटाकर भाव विशुद्धि के लिए जीव को कैसा आचरण करना चाहिए इसका सविस्तार विवेचन गाथा ६० से आगे पूरे पाहुड़ में कुन्दकुन्द स्वामी ने किया है। इसके लिए उन्होंने सम्यक दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तप को धारण करने का, धर्म-शुक्ल ध्यान को ध्याने का और भावनाओं को भाने का उपदेश दिया है।
सम्यग्दर्शन को धारण करने की प्रेरणा करते हुए वे कहते हैं कि मिथ्यात्व से मोहित, बेचेत जीव अनादि काल से संसार में
SONS
Don
५-१७०