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________________ T ३. गाथा ३४ में तो पं० जी ने भावरहित भी द्रव्यलिंग को पहले धारण करने की बात कही पर गाथा ४८, ४६, ६६-७१, ७३ एवं १११, ११३ में निम्न प्रकार ऐसा भी विवेचन पाया जाता है कि विशुद्ध भाव बिना बाह्य वेष धारना योग्य नहीं है, भाव शुद्ध नहीं देखते तो लोग ही कहते हैं कि काहे का मुनि है, कपटी है अतः वह व्यवहार धर्म की हंसी कराने वाला होता है । गाथा ४६ का भावार्थ- द्रव्यलिंग भावसहित ही धारण करना श्रेष्ठ है, केवल द्रव्यलिंग तो उपद्रव का कारण होता है | गाथा ६६ - हे मुने! पैशुन्य, हास्य, मत्सर और माया आदि पापों से मलिन और अपयश के भाजन ऐसे मुनिपने से तुझे क्या साध्य है ! गाथा ७०-हे आत्मन् ! तू अभ्यन्तर भावदोषों से अत्यंत शुद्ध ऐसा जिनवरलिंग प्रगट कर, भावशुद्ध बिना द्रव्यलिंग बिगड़ जायेगा क्योंकि भाव मल से जीव बाह्य परिग्रह में मलिन होता है। गाथा ७१ - धर्म में जिसका वास नहीं और दोषों का जो आवास है वह गन्ने के फूल के समान निष्फल व निर्गुण नटश्रमण नाचने वाले भांड के स्वांग सारिखा है, ऐसे मुनि में सम्यग्ज्ञानादि गुण नहीं होते अतः उसमें मोक्ष रूप फल नहीं लगता । गाथा ७३ - मिथ्यात्व आदि दोषों को छोड़कर और भाव से अन्तरंग नग्न होकर एकरूप शुद्ध आत्मा का श्रद्धान-ज्ञान- आचरण करे, पीछे मुनि द्रव्य से बाह्य लिंग जिन आज्ञा से प्रकट करे। भाव शुद्ध हुए बिना पहले ही दिगम्बर रूप धार ले तो पीछे भाव बिगड़ें तब भ्रष्ट हो और भ्रष्ट होकर मुनि भी कहलावे तो मार्ग की हास्य करावे इसलिए भाव शुद्ध करके ही बाह्य मुनिपना प्रकट करो। गाथा १११ - जो भाव की शुद्धता से रहित हैं, अपनी आत्मा का यथार्थ श्रद्धान-ज्ञान-आचरण जिनके नहीं है, उनके बाह्य लिंग कुछ कार्यकारी नहीं है, कारण पाकर तत्काल बिगड़ता है इसलिए यह उपदेश है कि पहले भाव की शुद्धता करके द्रव्यलिंग धारना | गाथा ११३ - हे मुनिवर ! तू भाव से विशुद्ध होता हुआ, पूजालाभादि को न चाहता हुआ बाह्य शयन, आतापन आदि उत्तरगुणों को पाल । ५-१६६
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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