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४६. बंधइ असुहं कम्मं जिणवयणपरम्मुहो जीवो।। ११७।। अर्थ-जिनवचन से पराङ्मुख जीव अशुभ कर्म को बांधता है। ४७. झायहि धम्म सुक्कं अट्टरउदं च झाण मुत्तूण।। १२१।। अर्थ-आर्त और रौद्र ध्यान को छोड़कर तू धर्म और शुक्ल ध्यान को ध्या। ४४. छिंदंति भावसवणा झाणकुठारेहिं भवरुक्खं ।। १२२।। अर्थ-भावश्रमण ध्यान रूपी कुठार से संसार रूपी व क्ष को छेद देते हैं। ४9. भावसवणो वि पावइ सुक्खाई दुहाई दव्वसवणो य।। १२७।। अर्थ भावश्रमण तो सुखों को और द्रव्यश्रमण दुःखों को पाता है। ५०. भावेण य संजदो होहि।। १२७।। अर्थ-तू भावसहित संयमी बन। ५१. ते धण्णा ताण णमो दंसणवरणाणचरणसुद्धाणं।। १२७।। अर्थ-सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारिक से शुद्ध वे मुनि धन्य हैं, उनको नमस्कार हो। ५२. उत्थरइ जा ण जरओ ताव तुम कुणहि अप्पहिउं।। १३२।। अर्थ-जब तक जरा का आक्रमण न हो तब तक तू आत्महित कर ले। ५३. रुंभहि मण जिणमग्गे असप्पलावेण किं बहुणा।। १४२|| अर्थ-निष्प्रयोजन बहुत कहने से क्या लाभ ! जिनमार्ग में तू अपने मन को रोक अर्थात् स्थिर कर। ५४. जीवविमुक्को सवओ दंसणमुक्को य होइ चलसवओ।। १४३।। अर्थ-जीव रहित तो 'शव' और सम्यग्दर्शन से रहित 'चलशव' कहलाता है। ५५. अहिओ तह सम्मत्तो रिसिसावयदुविहधम्माण।। १४४।। अर्थ ऋषि और श्रावक-इन दो प्रकार के धर्मों
में सम्यक्त्व है, वह अधिक है। ५६. दंसणरयणं धरेह
भावेण।। १४७।। अर्थ-सम्यग्दर्शन रूपी
रत्न को भावपूर्वक धारण कर। ५७. तिहुवणभवण
पईवो देओ मम उत्तम बोहिं
।। १५२।। अर्थ-तीन लोक
रूपी भवन को प्रकाशित
करने के लिए प्रक ष्ट दीपक
तुल्य अरहंत देव मुझे उत्तम
बोधि प्रदान करो।
ई
पईचो देओ
ALLLLLLLLLLL
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