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३. भावशुद्धि बिना मुनियों तक को भी सिद्धि नहीं - बड़े-बड़े मुनियों ने भी भावशुद्धि के बिना सिद्धि नहीं पाई। तद्भव मोक्षगामी दिव्य पुरुष बाहुबलि स्वामी के भी मान कषाय से कलुषित परिणाम रहे और केवलज्ञान न हो पाया । मधुपिंगल व वशिष्ठ मुनि निदान के दोष से नहीं सीझे । बाहु मुनि सातवें नरक के रौरव बिल में जाकर पड़े । द्वीपायन मुनि अनन्त संसारी हुए, अभव्यसेन नामक द्रव्यलिंगी मुनि ग्यारह अंग रूप पूर्ण श्रुतज्ञान पढ़कर भी भावश्रमणपने को प्राप्त नहीं परन्तु शिवभूति व शिवकुमार मुनि ने भाव की विशुद्धता से मोक्ष
पाया।
४. भावलिंग बिना द्रव्यलिंग की अकार्यकारिता - भावरहित द्रव्यमात्र लिंग से साध्य की सिद्धि नहीं होती । भाव व द्रव्य दोनों लिंगों में भावलिंग ही परमार्थ, प्रधान और प्रथम है, द्रव्यलिंग नहीं । अनादिकाल से लेकर अनंत संसार में जीव ने भावरहित निर्ग्रथ रूपों को बहुत बार ग्रहण कर-कर के छोड़ा परन्तु चतुर्गति में ही भ्रमता रहा। तीन लोक प्रमाण सारे स्थानकों में ऐसा एक प्रदेश मात्र भी स्थान नहीं बचा जिसमें द्रव्यलिंग का धारक मुनि होते हुए इसने जन्म-मरण न किया हो । भाव के बिना बाह्य परिग्रह का त्याग निष्फल है और भाव के बिना ही करोड़ों भवों में तप करने पर भी सिद्धि नहीं होती । भावरहित के पढ़ना-सुनना भी कुछ कार्यकारी नहीं है । मुनिपने तथा श्रावकपने का कारणभूत भाव ही है। भाव बिना गिरि-गुफा में व नदी के निकट आदि में आवास करना और सकल ध्यान- अध्ययन निरर्थक है। जीव ने बाह्य में बाधंव आदि मित्रों को तो छोड़ा, उनसे तो मुक्त हुआ परन्तु भीतर भावों से मुक्त नहीं हुआ, अभ्यन्तर की वासना नहीं छोड़ी। द्रव्यमात्र से लिंगी वास्तव में होता नहीं है, भाव से ही लिंगी होता है । भावरहित नग्नपना तो अकार्यकारी है। भावरहित बाह्य नग्नपने से ही सिद्धि हो जाए तो द्रव्य से बाहर में तो नारकी, तिर्यंच आदि सारे ही प्राणी नग्न होते हैं परन्तु वे भावश्रमण तो नहीं हो जाते। मुनिपना तो भाव शुद्ध
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