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अर्थात् कुमरण के, अपवित्र शरीर में वास के, शरीर के रोगों के एवं बालपने के काल के अनंत दुःखों को प्राप्त किया अतः भाव को शुद्ध करने का उपदेश है ।
२. भाव बिना अनादि काल से अनन्त संसार में परिभ्रमण-भाव के बिना इस जीव ने तीन सौ तेतालिस राजू प्रमाण लोक क्षेत्र में मेरु के नीचे के आठ प्रदेशों को छोड़कर एक भी प्रदेश जन्म लेने और मरण करने से नहीं छोड़ा और इस अनन्त भव समुद्र में पुद्गल के परमाणु रूप स्कन्ध भी अनन्त बार ग्रहण किये व छोड़े। अशुभ भावना युक्त होते हुए अनेक बार यह कुदेवपने को प्राप्त हुआ और फिर वहाँ से चयकर मनुष्य वा तिर्यंच होकर अनेक माताओं की गर्भ वसतियों में भी यह बहुत काल तक बहुत बार बसा । जन्म-जन्म में इसने अनेक माताओं का समुद्र के जल से भी अधिक दूध पिया और जन्म लेकर मरने पर अनेक माताओं के अश्रुपात का जल भी समुद्र से भी अधिक हुआ। इस अनन्त संसार सागर में इसके कटे वा टूटे हुए केश, नख, नाल व अस्थि की राशि यदि एकत्रित करो तो सुमेरु पर्वत से भी अनन्तगुणी हो जाएगी ।
भाव बिना इस जीव ने जल, स्थल, अग्नि, पवन, आकाश, पर्वत, नदी और वन आदि सब ही स्थानकों में निवास किया है, इस लोक के उदर में वर्तते सारे पुद्गलों का भक्षण किया है, तीन भुवन का सारा जल भी पिया है, इस भव समुद्र में अपरिमित शरीर ग्रहण कर-करके छोड़े हैं, सब शरीरों के अनेक रोगों को भी अनेक बार सहा है और बहुत बार उत्पन्न हो-होकर अनेक जन्मान्तरों में कुमरण ही किया है। भाव बिना ही द्रव्यलिंगी होकर इसने अनन्त बार पार्श्वस्थ आदि भावनाएँ भाईं और द्रव्यलिंग धारण करके परम्परा से भी भावलिंगी न होता हुआ अनन्त काल पर्यन्त संसार में ही घूमता
रहा ।
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