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विषयवस्तु
एक सौ पैंसठ गाथाओं में विस्त त यह भावपाहुड़ तो मोक्षमार्ग व रत्नत्रय का पोषक अत्यंत ही सुन्दर पाहुड़ है। पूरे पाहुड़ में सर्वत्र शुद्धभाव ही की महिमा है। भगवान ने जीव के अशुभ, शुभ व शुद्ध-ऐसे तीन प्रकार के भाव कहे हैं जिनमें से स्वभाव परिणाम रूप भाव होने से शुद्धभाव ही सर्वथा उपादेय है क्योंकि यह आत्मा का स्वरूप ही है।
भावपाहुड़ के गाथा १ से ६० तक पहला और फिर गाथा ६१ से १६५ तक दूसरा-इस प्रकार दो विभाग हैं। प्रथम विभाग के मुख्य वर्ण्य विषय ये हैं-(१).शुद्धभाव की महिमा, (२) द्रव्य व भावलिंग का स्वरूप व मोक्षमार्ग में दोनों की उपयोगिता एवं (३) द्रव्यलिंग सम्बन्धित तीन द्रष्टव्य बिन्दु ।
द्वितीय विभाग में शुद्ध भाव के प्राप्ति का मुख्य साधन भावविशुद्धि के लिए जीव को नाना प्रकार के शुभ आचरण करने का उपदेश है।
अब इन दोनों विभागों की विवेचना करते हैं :
प्रथम विभाग-गाथा १ से ६० तक(१) शुद्ध भाव की शुद्ध भाव की अत्यंत महिमा है इसमें नम्नलिखित चार बिन्दु प्रमुख हैं :
१. भाव बिना दुःख ही दुःख की प्राप्ति-भाव बिना इस जीव ने अनादिकाल से चार गति के भीषण दुःख संसार में परिभ्रमण करते हुए पाए हैं। नरकों में सागरों की आयु पर्यन्त अति तीव्र दुःख पाए, तिर्यंच गति में असंख्यात अनंत काल पर्यन्त दुःख, मनुष्य गति में आगंतुक एवं मानसिक और सहज एवं शारीरिक-ऐसे चार प्रकार के दुःख और देवलोक में विषयों के लोभी होते हुए मानसिक दुःख ही दुःख पाए। भाव बिना गर्भवास
के, निगोद के, अपम त्यु
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