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आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्ट पाहड़
स्वामी विरचित
है इसलिए जिनभक्ति निरन्तर करनी और जिन आज्ञा मानकर आगमोक्त मोक्षमार्ग
में प्रवर्तना - यह श्री गुरु का उपदेश है, जिन आज्ञा के सिवाय अन्य सब कुमार्ग हैं
उनका प्रसंग छोड़ना - ऐसा करने से आत्मकल्याण होता है।
छप्पय
जीव सदा चिद्भाव, एक अविनाशी धारै ।
कर्म निमित्त कूं पाय, अशुद्ध भावनि विस्तारै । । कर्म शुभाशुभ बांधि, उदै भरमै संसारै ।
पावै दुःख अनंत, च्यारि गति मैं डुलि सारै ।।
सर्वज्ञ देशना पायकै, तजै भाव मिथ्यात जब ।
निज शुद्धभाव धरि कर्म हरि, लहै मोक्ष भरमै न तब ।। १।।
अर्थ
जीव स्वभाव से सदा एक अविनाशी चैतन्य भाव को धारण करता है और कर्म
के निमित्त को पाकर अशुद्ध भावों का विस्तार करता है जिससे शुभाशुभ कर्मों को
बांधकर उनके उदय से संसार में भ्रमण करता है तथा चार गतियों में भ्रमण करके
अनंत दुःखों को पाता है । सर्वज्ञ भगवान की देशना को प्राप्त करके जब यह जीव
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मिथ्यात्व भाव को तज देता है तब निज शुद्ध भाव को धारण करके तथा कर्म हरके
मोक्ष को प्राप्त कर लेता है और फिर संसार में नहीं घूमता । । १ । ।
दोहा
मंगलमय परमातमा, शुद्ध भाव अधिकार ।
नमूं पांय पाऊं स्वपद, जांचूँ यहै करार । । २ ।।
अर्थ
मंगलमय परमात्मा जिनका कि शुद्ध भाव पर ही अधिकार है उनके चरणों को
नमस्कार करके मैं उनकी यही स्वीकृति मांगता हूँ कि मैं निज पद को पा
जाऊँ' ।। २ ।।
(५-१६३
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