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होने पर ही होता है। निर्ग्रन्थ मुनिवेष यद्यपि तप व व्रतों से युक्त निर्मल भी हो तो भी भाव के बिना सुशोभित नहीं होता। जो सम्यग्द ष्टि है और मूलगुण व उत्तरगुणों से सहित है वही मुनि कहलाता है, मलिन चित्त से युक्त मिथ्याद ष्टि तो यद्यपि मुनिवेष भी धारे तो भी श्रावक समान भी नहीं है। भावरहित बाह्य लिंग से क्या कर्तव्य है, कुछ भी नहीं। भावरहित नग्न तो सदा दुःख ही पाता है और संसार समुद्र में ही घूमता है। विमल जिनशासन में राग के संग से युक्त व जिनभावना से रहित द्रव्यनिर्ग्रथ बोधि व समाधि को नहीं पाते। भावसहित मुनि आराधना के चतुष्क को पाते हैं और भावरहित दीर्घ संसार में घूमते हैं। भावश्रमण सुखों को और द्रव्यश्रमण दुःखों को पाते हैं । इन्द्रियसुख में आकुलित द्रव्यश्रमणों के धर्म-शुक्ल ध्यान नहीं होता अतः वे संसार वक्ष का छेदन करने में समर्थ नहीं होते, परन्तु भावश्रमण ध्यान रूपी कुल्हाड़े से संसार वक्ष को काट देते हैं।
इस प्रकार जीव को और मुख्य रूप से बाह्य आचरण सहित द्रव्यलिंगी मुनि को भावरहित उसके द्रव्यलिंग का वास्तविक स्वरूप व स्थिति समझाकर उसे शुद्ध भाव की महिमा बताई है और शुद्ध भाव के धारण करने का उपदेश दिया है।
(२) द्रव्य व भावलिंग का स्वरूप व मोक्षमार्ग में दोनों की उपयोगिता-मुनिलिंग द्रव्य व भाव के भेद से दो प्रकार है। आत्मा के पुद्गल कर्म के संयोग से देहादिक द्रव्य का सम्बन्ध है सो यह देह का बाह्य रूप द्रव्य कहलाता है तथा इसका लिंग द्रव्यलिंग है और आत्मा के स्वाभाविक परिणाम को भाव कहते हैं, उसमय लिंग तथा रूप भावलिंग है । द्रव्यलिंग में बाह्य त्याग की और भावलिंग में अन्तरंग भाव की अपेक्षा होती है। द्रव्यलिंग में पाँच प्रकार के वस्त्र का त्याग, भूमि-शयन, दो प्रकार का संयम और भिक्षा-भोजन होता है और भावलिंग में देह आदिक परिग्रह एवं समस्त मान कषाय से रहितता
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