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________________ आचार्य कुन्दकुन्द * अष्ट पाहड़ स्वामी विरचित है इसलिए आचार्य ने अपना कर्तव्य प्रधान करके नहीं कहा है। इसके पढ़ने, सुनने व इसकी भावना भाने का फल जो मोक्ष कहा है सो युक्त ही है क्योंकि शुद्ध भाव से मोक्ष होता है और इसके पढ़ने से शुद्ध भाव होते हैं- इस प्रकार परम्परा मोक्ष का कारण इसका पढ़ना, सुनना, धारण करना और इसकी भावना करना है इसलिए जो भव्य जीव हैं वे इस भावपाहुड़ को पढो, सुनो, सुनाओ, भाओ और इसका निरन्तर अभ्यास करो जिससे शुद्ध भाव होकर सम्यग्दर्शन- ज्ञान-चारित्र की पूर्णता को पाकर मोक्ष पाओ और वहाँ परमानन्द रूप शाश्वत सुख को भोगो । । १६५ । । इस प्रकार श्री कुन्दकुन्द नामक आचार्य ने भावपाहुड़ ग्रन्थ पूर्ण किया । इसका संक्षेप ऐसा है - जीव नामक वस्तु का एक असाधारण शुद्ध अविनाशी चेतना स्वभाव है, उसकी शुद्ध व अशुद्ध रूप दो परिणतियाँ हैं जिसमें शुद्ध दर्शन -ज्ञानोपयोग रूप परिणमना सो तो शुद्ध परिणति है, इसे शुद्ध भाव कहते हैं। तथा कर्म के निमित्त से राग-द्वेष - मोहादि विभाव रूप परिणमना सो अशुद्ध परिणति है, इसे अशुद्ध भाव कहते हैं । वहाँ कर्म का निमित्त अनादि से है इसलिए वह अशुद्ध भाव रूप अनादि ही से परिणमन कर रहा है, उस भाव से शुभ - अशुभ कर्मों का बंध होता है और उस बंध के उदय से फिर अशुद्ध भाव रूप परिणमता है - इस प्रकार अनादि से सन्तान चली आ रही है । वहाँ जब इष्ट देवतादि की भक्ति, जीवों की दया, उपकार एवं मंद कषाय रूप परिणमता है तब तो शुभ का बंध करता है और उसके निमित्त से देवादि पर्याय पाकर कुछ सुखी होता है तथा जब विषय - कषायों के तीव्र परिणाम रूप परिणमता है तब पाप का बंध करता है और उसके उदय से नरकादि पर्याय पाकर दुःखी होता है - इस प्रकार संसार में अशुद्ध भाव से अनादि से यह जीव भ्रमण कर रहा है। तथा जब कोई काल ऐसा आता है जिसमें जिनेश्वर सर्वज्ञ वीतराग देव के उपदेश की प्राप्ति होती है और उसका श्रद्धान, रुचि, प्रतीति व आचरण करता है तब अपना और पर का भेदज्ञान करके शुद्ध - अशुद्ध भाव का स्वरूप जान अपने हित-अहित का श्रद्धान, रुचि, प्रतीति और आचरण करता है तब शुद्ध दर्शनज्ञानमयी शुद्ध चेतना के परिणमन को तो हित जानकर उसका फल संसार की निवत्ति जानता है और अशुद्ध भाव का फल संसार है उसको जानता है तब शुद्ध भाव के अंगीकार और अशुद्ध भाव के त्याग का उपाय करता है । वहाँ उपाय का स्वरूप ५-१६१ 卐業卐業專業 蛋糕糕卐糕業業卐業線
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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