________________
卐業卐業卐業業卐業業業卐業業業業
आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्ट पाहड़
स्वामी विरचित
जो धर्म, अर्थ व काम, मोक्ष अरु अन्य भी व्यापार हैं।
वे हैं परिस्थित शुद्धभाव में, बहुत कहने से क्या हो ! । ।१६४ ।।
अर्थ
आचार्य कहते हैं कि बहुत कहने से क्या ! धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष तथा अन्य जो कुछ व्यापार हैं वे सब ही शुद्ध भाव में समस्त रूप से स्थित हैं ।
भावार्थ
पुरुष के अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष ये चार प्रयोजन प्रधान हैं तथा अन्य भी जो
कुछ मंत्र साधनादि व्यापार हैं वे आत्मा के शुद्ध चैतन्य परिणाम स्वरूप भाव में स्थित हैं। शुद्ध भाव से सर्व सिद्धि है - ऐसा संक्षेप से कहा जानो, अधिक क्या कहें ! | | १६४ । ।
उत्थानिका
आगे इस भावपाहुड़ को पूर्ण करते हुए इसको पढ़ने, सुनने व इसकी भावना करने का उपदेश करते हैं :
इय भावपाहुडमिणं सव्वं बुद्धेहिं देसियं सम्मं ।
जो पढइ सुणइ भावइ सो पावइ सासयं ठाणं ।। १६५ ।।
इस भाँति यह सर्वज्ञ देशित, 'भावपाहुड' है इसे ।
पढ़ता व सुनता, भाता जो, वह पाता अविचल थान को । । १६५ ।।
अर्थ
'इति' अर्थात् इस प्रकार इस भावपाहुड़ का सर्वबुद्ध जो सर्वज्ञ देव उन्होंने उपदेश दिया है सो इसको जो भव्य जीव सम्यक् प्रकार पढ़ता है, सुनता है और इसकी भावना भाता है वह शाश्वत सुख का स्थान जो मोक्ष उसको पाता है ।
भावार्थ
यह भावपाहुड़ ग्रन्थ है सो सर्वज्ञ की परम्परा से अर्थ ले आचार्य ने कहा है
इसलिए सर्वज्ञ ही के द्वारा उपदेशा हुआ है, केवल छद्मस्थ ही का कहा हुआ नहीं
५-१६०
【專
業
卐卐卐
*糕糕糕糕糕糕糕糕糕卐縢糕糕糕縢業