SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 417
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ष्ट पाहुड star स्वामी विरचित आचार्य कुन्दकुन्द Dod lood FDeo/ COM उत्थानिका 添馬添馬添先崇禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁 आगे आचार्य प्रार्थना करते हैं कि 'ऐसी सिद्धि के सुख को प्राप्त हुए जो सिद्ध ___भगवान वे मुझको भी भाव की शुद्धता को दें :ते मे तिहुवणमहिया सिद्धा सुद्धा णिरंजणा णिच्चा। दिंतु वरभावसुद्धिं दंसणणाणे चरित्ते य।। १६३।। त्रिभुवनमहित वे सिद्ध शुद्ध हैं, अरु निरंजन नित्य हैं। वे दें मुझे वरभावशुद्धि, ज्ञान-दर्शन-चरित में ||१६३ ।। अर्थ जो सिद्ध भगवान हैं वे मुझको दर्शन, ज्ञान में और चारित्र में श्रेष्ठ, उत्तम भाव की शुद्धता को दो। कैसे हैं सिद्ध भगवान-तीन भुवन से पूज्य हैं। और कैसे हैं-शुद्ध हैं अर्थात् द्रव्यकर्म एवं नोकर्म रूप मल से रहित हैं। और कैसे हैं-निरंजन हैं अर्थात् रागादि भावकर्मों से रहित हैं, पुनः जिनके कर्म का उपजना नहीं है। और कैसे हैं-नित्य हैं अर्थात् जिनके प्राप्त हुए स्वभाव का फिर नाश नहीं है। भावार्थ आचार्य ने शुद्ध भाव का फल सिद्ध अवस्था रूप निश्चय करके उस फल को प्राप्त हुए जो सिद्ध उनसे यह ही प्रार्थना की है कि 'शुद्ध भाव की पूर्णता हमारे होओ' ||१६३।। 先养养樂業禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁 आगे भाव के कथन का संकोच करते हैं :किं जंपिएण बहुणा अत्थो धम्मो य काममोक्खो य। अण्णे वि य वावारा भावम्मि परिट्ठिया सुद्धे ।। १६४ ।। 崇明崇崇明崇明崇明崇勇戀戀戀戀兼業助兼崇明
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy