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अष्ट पाहुstrata
स्वामी विरचित
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आचार्य कुन्दकुन्द
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प्राप्त हुए और अब जो ऐसे होंगे वे ऐसे ही पाएंगे-ऐसा जानना ।।१६१।।
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आगे कहते हैं कि 'मुक्ति का सुख भी ऐसे ही पाते हैं' :सिवमजरामरलिंग अणोवमं महग्घं विमलमतुलं। पत्ता वरसिद्धिसुहं जिणभावणभाविया जीवा।। १६२ ।। जिनभावनाभावित जो जीव वे, पाते वह वर सिद्धि सुख । जो विमल, अतुल व शिव, अनूपम, अजर-अमर, महार्घ्य है।।१६२ ।।
अर्थ जिनभावना से भावित, सहित जीव ही 'सिद्धि' अर्थात् मोक्ष के सुख को पाते हैं। कैसा है सिद्धि सुख-शिव है अर्थात् कल्याण रूप है-किसी प्रकार के उपद्रव सहित नहीं है।
और कैसा है-'अजरामरलिंग' है अर्थात् वद्ध होना और मरना-इन दोनों से रहित जिसका चिन्ह है। और कैसा है-अनुपम है अर्थात जिसे सांसारिक सुख की उपमा लगती नहीं। और कैसा है-महार्घ्य है, महान् अर्घ्य, पूज्य, प्रशंसा के योग्य है। और कैसा है-विमल है अर्थात् कर्म के मल तथा रागादि मल से रहित है। और कैसा है-अतुल है अर्थात् इसके बराबर अन्य कोई सांसारिक सुख नहीं है, ऐसे सुख को जिनभक्त पाता है, अन्य का भक्त नहीं पाता है।।१६२ ।।
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टि0-1. 'मु० प्रति' में इस स्थल पर ये पंक्तियाँ और मिलती हैं-'बहुरि कैसा है-उत्तम' कहिये
सर्वोत्तम है। बहुरि परम' कहिये सर्वोत्कृष्ट है।' वहाँ पर सम्बन्धित गाथा की प्रथम पंक्ति में 'महाघं' ब्द के स्थान पर उत्तमं परम' पाठ ही दिया गया है।
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