________________
卐糕糕糕糕糕渊渊渊卐業專業
आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्ट पाहड़
स्वामी विरचित
अर्थ
जैसे पवनपथ जो आकाश उसमें ताराओं की पंक्ति से परिवारित पूर्णमासी का
चन्द्रमा शोभित होता है वैसे जिनमत रूपी आकाश में गुणों के जो समूह सो ही हुई मणियों की माला उससे मुनीन्द्र रूप चन्द्रमा सुशोभित होता है।
भावार्थ
अट्ठाईस मूलगुण, दशलक्षण धर्म, तीन गुप्ति और चौरासी लाख उत्तरगुण इत्यादि गुणों की माला से सहित जो मुनि हैं वे जिनमत में चन्द्रमा के समान सुशोभित होते हैं, ऐसे मुनि अन्यमत में नहीं हैं । । १६० । ।
उत्थानिका
आगे कहते हैं कि ‘ऐसे जिनके विशुद्ध भाव हैं वे सत्पुरुष तीर्थंकर आदि पद के सुखों को पाते हैं' :
चक्कहर राम केसव सुरवर जिण गणहराइसोक्खाइं ।
चारणमुणिरिद्धीओ विसुद्धभावा णरा पत्ता । । १६१ ।।
जिन, गणधरादिक, राम, केशव, चक्री, सुरवर सौख्य अरु ।
चारण मुनी ऋद्धी को पाया, विशुद्ध भावी नरों ने । ।१६१ । ।
अर्थ
खण्ड
विशुद्ध हैं भाव जिनके ऐसे जो नर मुनि हैं वे 'चक्रधर' अर्थात् चक्रवर्ती - षट् का राजेन्द्र, 'राम' अर्थात् बलभद्र, 'केशव' अर्थात् नारायण- अर्द्धचक्री, 'सुरवर' अर्थात् देवों का इन्द्र, 'जिन' अर्थात् तीर्थंकर - पंच कल्याण से सहित तीन लोक से पूज्य पदवी, 'गणधर' अर्थात् चार ज्ञान व सात ऋद्धि के धारक मुनि सुखों को तथा 'चारणमुनि' अर्थात् आकाशगामिनी आदि ऋद्धियाँ जिनके पाई जाती हैं उनकी ऋद्धियों को प्राप्त हुए ।
इनके
भावार्थ
पूर्व में जो ऐसे निर्मल भाव के धारक पुरुष हुए वे ऐसी पदवियों के सुखों को (५-१५७ 專業專業
卐糕糕
專業業卐業業業