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आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्ट पाहड़
स्वामी विरचित
मद, मोह, गारव मुक्त अरु, संयुक्त करुणा भाव से ।
वे पापथंभ को सर्व को, चारित खडग से काटते । । १५१ ।।
अर्थ
जो मुनि मोह, मद एवं गारव - इनसे रहित हैं और करुणा भाव से सहित हैं वे
चारित्र रूपी खड्ग से पाप रूपी जो स्तंभ है उसका हनन करते हैं अर्थात् उसे से काट देते हैं।
मूल
भावार्थ
मोह तो परद्रव्य से ममत्व भाव को कहते हैं । मद जाति आदि परद्रव्य के
सम्बन्ध से जो गर्व होता है उसको कहते हैं। गौरव इन तीन प्रकार का है
१. ऋद्धि गौरव-यदि कुछ तपोबल से अपनी महंतता लोक में हो तो उसका अपने
को मद आवे और उसमें हर्ष माने, २. सात गौरव - यदि अपने शरीर में रोगादि न उपजे तब सुख माने और प्रमादयुक्त होकर अपना महंतपना माने तथा ३. रस गौरव-यदि मिष्ट, पुष्ट एवं रसीला आहारादि मिले तो उसके निमित्त से प्रमत्त होकर शयनादि करे- ऐसे जो गौरव उनसे तो मुनि रहित हैं और पर जीवों की करुणा से युक्त हैं, ऐसा नहीं है कि क्योंकि पर जीव से मोह-ममत्व नहीं है इसलिए निर्दयी होकर उनका हनन करें, जब तक राग के अंश रहते हैं तब तक पर जीवों की करुणा ही करते हैं, उपकार बुद्धि ही रहती है - इस प्रकार मुनि ज्ञानी, पाप जो
अशुभ कर्म, उसका चारित्र के बल से नाश करते हैं ।। १५६ ।।
उत्थानिका
आगे कहते हैं कि 'ऐसे मूलगुण व उत्तरगुणों से मंडित मुनि हैं वे जिनमत में
शोभते हैं :गुणगणमणिमालाए जिणमयगयणे णिसायरमुणिंदो ।
तारावलिपरियरिओ पुण्णिमइंदुव्व पवणपहे ।। १६० ।। तारावली से परिकरित, पूर्णेन्दु शोभे नभ में ज्यों ।
गुणगण मणीमाला से युत, जिनमत गगन मुनि चन्द्र त्यों । ।१६० ।।
५-१५६
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