SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 411
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 卐糕糕糕糕糕渊渊渊卐業專業 आचार्य कुन्दकुन्द * अष्ट पाहड़ स्वामी विरचित अर्थ पूर्वोक्त भाव से सहित जो सम्यग्दष्टि पुरुष है और शील, संयम गुणों से ‘सकलकला' अर्थात् सम्पूर्ण कलावान है उस ही को हम मुनि कहते हैं तथा सम्यग्द ष्टि नहीं है अर्थात् मलिन चित्त से सहित मिथ्याद ष्टि है और बहुत दोषों का आवास है - स्थान है, वह तो वेष धारण करता है तो भी श्रावक के समान भी नहीं है। भावार्थ जो सम्यग्दष्टि है और 'शील' अर्थात् उत्तरगुण और 'संयम' अर्थात् मूलगुण उनसे सहित है सो मुनि है तथा जो मिथ्याद ष्टि है अर्थात् मिथ्यात्व से जिसका चित्त मलिन है और क्रोधादि विकार रूप बहुत दोष जिसमें पाये जाते हैं वह तो मुनि का वेष धारण करता है तो भी श्रावक के समान भी नहीं है। श्रावक सम्यग्द ष्टि हो परन्तु ग हस्थाचार के पापों से सहित हो तो भी उसके बराबर भी केवल वेषी मुनि नहीं है - ऐसा आचार्य ने कहा है । । १५५ ।। उत्थानिका आगे कहते हैं कि ‘सम्यग्द ष्टि होकर जिन्होंने कषाय रूपी सुभट जीते वे ही धीर-वीर हैं' : ते धीरवीरपुरिसा खमदमखग्गेण विप्फुरंतेण । दुज्जय पबलबलुद्धर कसायभड णिज्जिया जेहिं । । १५६ ।। जीते जिन्होंने प्रबल बल उद्धत, कषाय सुभट अजय । उज्ज्वल क्षमा दम खड्ग से, हैं धीर-वीर पुरुष वे ही । । १५६ । । अर्थ जिनपुरुषों ने क्षमा और इन्द्रियों का दमन - सो ही हुआ 'विस्फुरंत' अर्थात् संवारा हुआ मलिनता रहित उज्ज्वल, तीक्ष्ण खड्ग उसके द्वारा जिनका जीतना कठिन - ऐसे दुर्जय और प्रबल बल से उद्धत कषाय रूप सुभटों को जीता वे ही धीर-वीर सुभट हैं, अन्य जो संग्रामादि में जीतते हैं वे तो कहने के सुभट हैं । ५-१५३ 【專 業 卐業業卐業業 糕卐糕蛋糕蛋糕糕糕卐業生
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy