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अष्ट पाहुए .
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स्वामी विरचित ।
आचार्य कुन्दकुन्द
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ज्यों पत्र कमलिनी न लिपे, जल से प्रक ति स्वभाव से। त्यों भाव से लिपता नहीं, सत्पुरुष विषय-कषाय से ।।१५४ ।।
अर्थ जैसे कमलिनी का पत्र है सो अपने प्रक ति स्वभाव से जल से लिप्त नहीं होता वैसे सत्पुरुष-सम्यग्द ष्टि पुरुष है वह अपने भाव से क्रोधादि कषायों और इन्द्रियों के विषयों से लिप्त नहीं होता।
भावार्थ सम्यग्द ष्टि पुरुष के मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी कषाय का तो सर्वथा अभाव ही है तथा अन्य कषायों का यथासंभव अभाव है। वहाँ मिथ्यात्व एवं अनंतानुबंध ी के अभाव से उसके ऐसा भाव होता है कि पर द्रव्यमात्र के तो कर्तापने की बुद्धि नहीं होती और अवशेष कषायों के उदय से जो कुछ राग-द्वेष प्रवर्तते हैं उनको कर्म के उदय के निमित्त से हुए जानता है इसलिए उनमें भी कर्तापने की बुद्धि नहीं होती तथा उन भावों को रोगवत् हुए जानकर भला नहीं जानता-इस भाव से उसे विषय-कषायों से प्रीति बुद्धि नहीं होती इसलिए उनसे लिप्त नहीं होता, जल कमलवत निर्लेप रहता है, जिससे उसके आगामी कर्म का बंध और संसार की व द्धि नहीं होती-ऐसा आशय जानना।।१५४।।
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आगे आचार्य कहते हैं कि 'जो पूर्वोक्त भाव से सहित सम्यग्द ष्टि पुरुष हैं वे ही
सकल शील-संयमादि गुणों से संयुक्त हैं, अन्य नहीं' :ते वि य भणामिहं जे सयलकला सीलसंजमगुणेहिं। बहुदोसाणावासो समलियचित्तो ण सावयसमो सो।। १५५।।
कहुँ उन्हें मुनि जो शील, संयम, गुण से सकल कला धरें। जो मलिनमन बहु दोषग ह, वे तो ना श्रावक सम भी हैं।।१५५ । ।
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