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स्वामी विरचित
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o आचार्य कुन्दकुन्द
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भावार्थ जब भले-बुरे मार्ग को जानता है तब अनादि संसार से लगाकर जो मिथ्याभाव रूप प्रकृति है वह पलटकर सम्यक् स्वभावरूप प्रकृति हो जाती है, उस प्रकृति से विशिष्ट पुण्य बाँधता है तब तीर्थंकर आदि की अभ्युदय रूप पदवी पाकर निर्वाण को पाता है।।१६।।
उत्थानिका
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आगे कहते हैं कि 'ऐसा सम्यक्त्च जिनवचनों से प्राप्त होता है इसलिए वे ही
सब दुःखों के हरने वाले हैं' :जिणवयण ओसहमिणं विसयसुहविरेयणं अमिदभूयं । जरमरणवाहिहरणं खयकरणं सव्वदुक्खाणं ।। १७।।
अम तमयी जिनवचन औषधि, विषय सुख की रेचिका। है जरा मरण व व्याधि हरणी, सब दुःखों की नाशिका ।। १७ ।।
अर्थ यह जिनवचन है सो औषधि है। कैसी औषधि है-विषय सुख जो इन्द्रियों के विषयों से माना हुआ सुख उसका विरेचन अर्थात् दूर करने वाली है। और कैसी है-अम तभूत अर्थात् अम त समान है और इसी कारण जरा-मरण रूपी रोग को हरने वाली तथा सब दुःखों का क्षय करने वाली है।
भावार्थ इस संसार में प्राणी विषय सुख का सेवन करते हैं जिससे कर्म बंधते हैं और उससे वे जन्म-जरा-मरण रूपी रोग से पीड़ित होते हैं सो जिनवचन रूपी औषधि ऐसी है जो विषय सुख से अरुचि उत्पन्न कराके उसका विरेचन करती है। जैसे गरिष्ठ आहार से जब मल बढ़ता है तो ज्वर आदि रोग उत्पन्न होते हैं तब उसके विरेचन को हरड़ आदि औषधि होती है वैसे ही यह औषधि है। जब विषयों से वैराग्य होता है तब कर्मबंध नहीं होता, तब जन्म-जरा-मरण रोग नहीं होते और संसार के दुःखों का अभाव होता है-इस प्रकार जिनवचनों को अम त समान
जानकर अंगीकार करना।।१७।। 崇明崇崇勇崇勇崇勇攀%、 「
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