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आचार्य कुन्दकुन्द
● अष्ट पाहुड़
Mea स्वामी विरचित
सम्यक्त्व से सज्ज्ञान उससे सब पदार्थ की प्राप्ति हो । उपलब्धि सर्व पदार्थ से फिर, श्रेय अश्रेय का ज्ञान हो । १५ ।।
अर्थ
सम्यक्त्व से तो ज्ञान सम्यक् होता है तथा सम्यग्ज्ञान से सर्व पदार्थों की उपलब्धि अर्थात् प्राप्ति तथा जानना होता हैं तथा पदार्थों की उपलब्धि होने से श्रेय अर्थात् कल्याण और अश्रेय अर्थात् अकल्याण- इन दोनों को जाना जाता है। भावार्थ
सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान को मिथ्याज्ञान कहा है अतः सम्यग्दर्शन होने पर ही सम्यग्ज्ञान होता है और सम्यग्ज्ञान से जीव-अजीव आदि पदार्थों का यथार्थ स्वरूप जाना जाता है तथा जब पदार्थों का यथार्थ स्वरूप जाना जाए तब भला-बुरा मार्ग जाना जाता है-इस प्रकार मार्ग के जानने में भी सम्यग्दर्शन ही प्रधान है ।। १५ ।।
उत्थानिका
आगे कल्याण-अकल्याण को जानने से क्या होता है सो कहते हैं सेयासेयविदहू उद्धददुस्सील सीलवंतो वि। सीलफलेणब्भुदयं तत्तो पुण लहइ णिव्वाणं ।। १६ ।। अश्रेय-श्रेय का ज्ञानी छोड़, कुशील धारे शील को ।
फिर शील फल से अभ्युदय पा, मुक्ति पद को प्राप्त हो । । १६ ।।
अर्थ
कल्याण मार्ग और अकल्याण मार्ग का जानने वाला पुरुष है वह 'उद्धददुस्सील' अर्थात् उड़ा दिया है मिथ्यास्वभाव को जिसने - ऐसा होता है तथा 'सीलवंतो वि' अर्थात् सम्यक् स्वभाव सहित भी होता है तथा उस सम्यक् स्वभाव के फल से अभ्युदय (उन्नति) पाता है अर्थात् तीर्थंकर आदि पद पाता है तथा अभ्युदय पाकर तत्पश्चात् निर्वाण को प्राप्त होता है।
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