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आचार्य कुन्दकुन्द
● अष्ट पाहुड़
उत्थानिका
आगे जिनवचन में दर्शन का लिंग अर्थात् वेष कितने प्रकार का कहा है सो कहते हैं :
Mea स्वामी विरचित
एगं जिणस्स रूवं वीयं उक्किट्ठसावयाणं तु ।
अवरट्ठियाण तइयं चउत्थ पुण लिंग दंसणे णत्थि ।। १८ ।।
है एक जिन का रूप दूजा, श्रावकोत्तम का कहा ।
तीजा जघन्यथित आर्या, चौथा लिंग दर्शन में नहीं || १८ ||
अर्थ
दर्शन में एक तो जिन का स्वरूप है अर्थात् जैसा जिनदेव ने लिंग धारण किया
सो है तथा दूसरा उत्कृष्ट श्रावकों का है तथा तीसरा 'अवरट्टिय' अर्थात् जघन्य पद
में स्थित ऐसी आर्यिकाओं का है तथा चौथा लिंग दर्शन में नहीं है ।
भावार्थ
जिनमत में तीन ही लिंग अर्थात् वेष कहे हैं- १. एक तो जो यथाजात रूप जिनदेव ने धारण किया वह है, २. दूसरा ग्यारहवीं प्रतिमा के धारक उत्कृष्ट श्राव का है, ३. तीसरा स्त्री आर्यिका हो उसका है तथा चौथा अन्य प्रकार का वेष जिनमत में नहीं है, जो मानते हैं वे मूलसंघ से बाहर हैं ।। १८ ।।
उत्थानिका
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आगे पूर्व में जैसा कहा वैसा तो बाह्य लिंग हो और उसके अन्तरंग श्रद्धान ऐसा हो वह सम्यग्दष्टि है
छह दव्व णव पयत्था पंचत्थी सत्त तच्च णिद्दिट्ठा ।
सद्दहइ ताण रूवं पंचास्तिकाय पदार्थ नौ उनके स्वरूप को श्रद्धहे, सद्दष्टि उसको जानना ।।१९।।
सो सद्दिट्टी मुणेयव्वो ।। १९ ।। छह द्रव्य सात जो तत्त्व हैं।
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१-३४ 卐卐糕糕糕卐湯
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