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________________ अष्ट पाहुड़ . .at स्वामी विरचित आचाय कुन्दकुन्द par looct HDod 崇崇崇崇崇崇崇先業業業%崇勇崇崇崇崇崇崇崇 भावार्थ परमात्मा के नाम ये हैं :(१) ज्ञानी-ज्ञानी कहने से तो जैसा सांख्यमती ज्ञान रहित उदासीन चैतन्य रूप मानता है उसका निषेध है। (२) शिव-शिव कहने से सब कल्याणों से परिपूर्ण है, जैसा सांख्यमती तथा नैयायिक-वैशेषिक मानते हैं वैसा नहीं है। (३) परमेष्ठी-परमेष्ठी कहने से परम उत्क ष्ट पद में स्थित है अथवा उत्क ष्ट इष्ट स्वभाव है। जैसा अन्य कई अपना इष्ट कुछ स्थापित करके उसको परमेष्ठी कहते हैं वैसा नहीं है। (४) सर्वज्ञ-सर्वज्ञ कहने से सब लोकालोक को जानता हैं। अन्य कई, यदि कोई किसी एक प्रकरण सम्बन्धी सब बातों को जानता हो तो उसको भी सर्वज्ञ कहते हैं, वैसा नहीं है। (५) विष्णु-विष्णु कहने से उसका ज्ञान सब ज्ञेयों में व्यापक है। अन्यमती वेदान्ती | आदि जो कहते हैं कि 'परमात्मा सब पदार्थों में व्यापक है' सो ऐसा नहीं है। * (६) चतुर्मुख-चतुर्मुख कहने से केवली अरहंत के समवसरण में चार मुख चारों दिशाओं में दिखने रूप अतिशय होने से चतुर्मुख कहलाता है। अन्यमती ब्रह्मा को चतुर्मुख कहते हैं सो ऐसा अन्य कोई ब्रह्मा नहीं है। (७) बुद्ध-बुद्ध कहने से सबका ज्ञाता हैं। बौद्धमती क्षणिकवादी को बुद्ध कहते हैं वैसा नहीं है। (८) आत्मा-आत्मा कहने से अपने स्वभाव ही में निरन्तर प्रवर्तता है। अन्यमती वेदान्ती आत्मा को जो सब में प्रवर्तता मानते हैं वैसा नहीं है। (६) परमात्मा-परमात्मा कहने से आत्मा का पूर्ण रूप अनन्त चतुष्टय उसके प्रकट हुआ है इसलिए परमात्मा है। (१०) कर्मविप्रमुक्त-कर्मविप्रमुक्त कहने से कर्म जो आत्मा के स्वभाव के घातक घातिकर्म उनसे रहित हुआ हैं इसलिए कर्मविप्रमुक्त है अथवा उन्से कुछ करने योग्य कार्य नहीं रहा इसलिए भी कर्मविप्रमुक्त है। सांख्यमती, नैयायिक जो सदा ही कर्म रहित मानते हैं वैसा नहीं है। 業坊業崇勇崇崇明藥業|賺騰騰崇崇崇明崇明 先养养樂業禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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