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________________ अष्ट पाहुए . sarata स्वामी विरचित । G... आचार्य कुन्दकुन्द Ded. •load ADGE FDOG) Des/ Dod ऐसे परमात्मा के सार्थक नाम हैं। अन्यमती अपने इष्ट के नाम तो ये ही कहते हैं पर उनका सर्वथा एकांत के अभिप्राय से अर्थ बिगाड़ते हैं सो यथार्थ नहीं है। अरहंत के ये नाम नय विवक्षा से सत्यार्थ हैं-ऐसा जानना।।१५१।। उत्थानिका आगे आचार्य कहते हैं कि 'जो ऐसा देव है वह मुझे उत्तम बोधि देवे' : इय घाइकम्ममुक्को अट्ठारहदोसवज्जिओ सयलो। तिहुवणभवणपईवो देओ मम उत्तमं बोहिं।। १५२।। जो घातिकर्म रहित सकल, त्रिभुवन भवन दीपक हैं जो। हैं दोष अष्टादश रहित, वे मुझे उत्तम बोधि दें।।१५२ ।। 樂崇崇崇崇勇兼禁藥藥業先崇崇勇禁藥事業兼功兼男男戀 अर्थ 'इति' अर्थात् ऐसा घातिया कर्मों से रहित, क्षुधा-त षा आदि पूर्वोक्त अठारह दोषों से वर्जित, 'सकल' अर्थात् शरीर सहित और तीन भुवन रूपी भवन के प्रकाशने को प्रक ष्ट दीपक तुल्य देव है सो मुझको 'बोधि' अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की प्राप्ति दो-ऐसी आचार्य ने प्रार्थना की है। भावार्थ यहाँ और तो पूर्वोक्त प्रकार जानना परन्तु जो 'सकल' विशेषण है उसका यह आशय है कि मोक्षमार्ग की प्रव त्ति उपदेश के वचन प्रवर्ते बिना नहीं होती और वचन की प्रव त्ति शरीर बिना नहीं होती और अरहंत का आयु कर्म के उदय से शरीर सहित अवस्थान रहता है और स्वर आदि नामकर्म के उदय से वचन की प्रव त्ति होती है-इस प्रकार अनेक जीवों का कल्याण करने वाला उपदेश प्रवर्तता है। अन्यमतियों के ऐसा अवस्थान परमात्मा का संभव नहीं है इसलिए उपदेश की प्रव त्ति नहीं बनती और तब मोक्षमार्ग का उपदेश भी नहीं प्रवर्तता-ऐसा जानना ।।१५२ ।। 先养养樂業禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁 崇崇崇寨寨寨然崇明崇明崇明崇崇明崇明崇明
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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