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आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्ट पाहड़
स्वामी विरचित
दंसणणाणावरणं मोहणियं अंतराइयं कम्मं ।
णिट्टवइ भवियजीवो सम्मं जिणभावणाजुत्तो ।। १४६ ।।
ज्ञानावरण, दर्शनावरण अरु मोहनी, अन्तराय का ।
जिनभावना युत भव्य जीव, करे क्षपण सम्यक्पने । 1989 ।।
अर्थ
सम्यक् प्रकार जिनभावना से युक्त भव्य जीव है वह ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय - ये जो चार घातिया कर्म हैं उनका निष्ठापन करता है, सम्पूर्ण अभाव करता है I
भावार्थ
दर्शन का घातक तो दर्शनावरण कर्म है, ज्ञान का घातक ज्ञानावरण कर्म है,
सुख का घातक मोहनीय कर्म है और वीर्य का घातक अंतराय कर्म है, इनके नाश को सम्यक् प्रकार 'जिनभावना' अर्थात् जिन आज्ञा मान जीव - अजीव आदि तत्त्व
का यथार्थ निश्चय कर श्रद्धावान हुआ हो सो जीव करता है इसलिये जिन आज्ञा
मान यथार्थ श्रद्धान करना - यह उपदेश है । । १४9 ।।
उत्थानिका
आगे कहते हैं कि 'इन घातिया कर्मों का नाश होने पर अनंत चतुष्टय प्रकट होता है' :
बलसोक्खणाणदंसण चत्तारि य पायडा गुणा होंति ।
ट्टे
घाइचउक्के लोयालोयं बल-ज्ञान-दर्शन-सौख्य चारों, गुण प्रकट होते हैं तब । जब नष्ट हो चउ घाति, हो परकाश लोकालोक का । । १५० ।।
पयासेदि । । १५० ।।
अर्थ
पूर्वोक्त घातिया कर्म के चतुष्क का नाश होने पर बल, सुख, ज्ञान और दर्शन-ये
५-१४७
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