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________________ आचार्य कुन्दकुन्द * अष्ट पाहड़ स्वामी विरचित (३) अमूर्तिक कहने से मीमांसक आदि इस शरीर सहित मूर्तिक ही मानते हैं उनका निषेध है। (४) शरीरपरिमाण कहने से नैयायिक, वैशेषिक और वेदान्ती आदि सर्वथा सर्वव्यापक मानते हैं, उनका निषेध है । (५) अनादिनिधन कहने से बौद्धमती सर्वथा क्षणमात्र स्थायी मानते हैं उनका निषेध है। (८) दर्शन-ज्ञान उपयोगमयी कहने से सांख्यमती तो ज्ञान रहित चेतना मात्र मानते हैं और नैयायिक, वैशेषिक गुण-गुणी का सर्वथा भेद मान ज्ञान और जीव का सर्वथा भेद मानते हैं और बौद्धमत का विशेष विज्ञानाद्वैतवादी ज्ञानमात्र ही मानते हैं और वेदान्ती भी ज्ञान का कुछ निरूपण नहीं करते हैं, उनका निषेध है। इस प्रकार सर्वज्ञ का कहा जीव का स्वरूप जान अपने को ऐसा मान श्रद्धा-रुचि-प्रतीति करना । तथा जीव कहने ही से अजीव पदार्थ भी जाना जाता है। अजीव न हो तो जीव नाम कैसे कहें इसलिए अजीव का स्वरूप कहा है वैसा उसका श्रद्धान आगम के अनुसार करना। इस प्रकार जीव- अजीव पदार्थ का स्वरूप जान और इन दोनों के संयोग से अन्य आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष-इन भावों की प्रवत्ति होती है, उनका आगम के अनुसार स्वरूप जान श्रद्धान किए सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है - ऐसा जानना । । १४४।। उत्थानिका OD आगे कहते हैं कि यह जीव ज्ञानदर्शन उपयोगमयी है तो भी अनादि पुद्गल कर्म के संयोग से इसके ज्ञान दर्शन की पूर्णता नहीं होती है इसलिए अल्प ज्ञान-दर्शन अनुभव में आता है और उसमें भी अज्ञान के निमित्त से इष्ट-अनिष्ट बुद्धि रूप राग-द्वेष-मोह भाव से ज्ञान, दर्शन में कलुषता रूप सुख-दुःखादि भाव अनुभव में आते हैं इसलिए यह जीव जब जिनभावना रूप सम्यदर्शन को प्राप्त होता है तब ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य के घातक कर्मों का नाश करता है - ऐसा दिखाते हैं : (५-१४६ 麻糕糕糕 *縢糕糕糕糕糕糕卐糕糕卐縢乐糕糕糕卐黹業
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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