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आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्ट पाहड़
स्वामी विरचित
अर्थ
जीव नामक पदार्थ है सो कैसा है १. कर्ता है, २. भोगी है, ३. अमूर्तिक है,
४. शरीरप्रमाण है, ५. अनादिनिधन है और ६. दर्शन - ज्ञान है उपयोग जिसका - ऐसा जिनवरेन्द्र जो सर्वज्ञदेव, वीतराग देव उन्होंने कहा है ।
भावार्थ
यहाँ जीव नामक पदार्थ के जो छह विशेषण कहे उनका आशय ऐसा है (१) कर्ता - कर्ता कहा सो निश्चयनय से तो अशुद्ध रागादि भाव उनका अज्ञान अवस्था में आप कर्ता है और व्यवहारनय से पुद्गल कर्म जो ज्ञानावरण आदि उनका कर्ता है और शुद्धनय से अपने शुद्ध भाव का कर्ता है।
(२) भोगी - भोगी कहा सो निश्चयनय से तो अपने ज्ञानदर्शनमयी चेतनभाव का भोक्ता है और व्यवहारनय से पुद्गल कर्म का फल जो सुख - दुःख आदि उसका भोक्ता है।
(३) अमूर्तिक- अमूर्तिक कहा सो निश्चयनय से तो स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, शब्द-ये पुद्गल के गुण- पर्याय हैं उनसे रहित अमूर्तिक है और व्यवहार से जब तक पुद्गल कर्म से बँधा है तब तक मूर्तिक भी कहते हैं ।
(४) शरीर परिमाण - शरीर परिमाण कहा सो निश्चयनय से तो असंख्यात प्रदेशी लोक परिमाण है परन्तु संकोच - विस्तार शक्ति से शरीर से कुछ कम प्रदेश परिमाण आकार रहता है।
(५) अनादिनिधन-अनादिनिधन कहा सो पर्यायद ष्टि से देखो तब उत्पन्न होता नष्ट होता है तो भी द्रव्यद ष्टि से देखो तब अनादिनिधन सदा नित्य-अविनाशी
है ।
(६) दर्शन ज्ञान उपयोग सहित - दर्शन ज्ञान उपयोग सहित कहा सो देखने-जानने रूप उपयोग स्वरूप चेतना रूप है।
तथा इन विशेषणों से अन्यमती अन्य प्रकार सर्वथा एकान्त से मानते हैं उनका निषेध भी जानना सो ऐसे
(१) कर्ता विशेषण से तो सांख्यमती सर्वथा अकर्ता मानते हैं उनका निषेध है। (२) भोक्ता विशेषण से बौद्धमती क्षणिक मान कहते हैं- 'कर्म को करता और है,
भोगता और है' उनका निषेध है। 'जो जीव कर्म करता है उसका फल वह ही जीव
भोगता है' ऐसे बौद्धमती के कहने का निषेध है।
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