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आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्ट पाहड़
इय णाउं गुणदोसं दंसणरयणं च धरेह भावेण ।
सारं गुणरयणाणं सोवाणं पढम मोक्खस्स ।। १४७ ।। गुण-दोष ऐसे जान धारो भाव से दर्शन रतन ।
स्वामी विरचित
है सार गुण रत्नों में अरु सोपान प्रथम जो मोक्ष का । ।१४७ ।।
अर्थ
हे मुनि ! तू 'इति' अर्थात् पूर्वोक्त प्रकार सम्यक्त्व के तो गुण और मिथ्यात्व के दोष उनको जानकर सम्यक्त्व रूपी रत्न है उसको भाव से धारण कर। कैसा सम्यक्त्व रत्न-गुण रूपी जो रत्न हैं उन सबमें सार है, उत्तम है तथा कैसा है-मोक्ष रूपी मंदिर का प्रथम सोपान है, चढ़ने की पहली पैड़ी है।
भावार्थ
जितने भी व्यवहार मोक्षमार्ग के
के महाव्रत, शील संयमादि उनमें
अंग हैं-ग हस्थ के तो दानपूजादि और मुनि सबमें सार सम्यदर्शन है इससे सब सफल हैं इसलिए मिथ्यात्व को छोड़ सम्यग्दर्शन अंगीकार करना-यह प्रधान उपदेश है । ।१४७ ।।
उत्थानिक
आगे कहते हैं कि ‘सम्यग्दर्शन होता है सो जो जीव पदार्थ का स्वरूप जान उसकी
भावना करे, उसका श्रद्धान करे और आपको जीव पदार्थ जान अनुभव करके
प्रतीति करे उसके होता है सो यह जीव पदार्थ कैसा है-उसका स्वरूप कहते हैं
कत्ता भोइ अमुत्तो सरीरमित्तो अणाइणिहणो य ।
दंसणणाणुवओगो
कर्ता व भोक्ता अमूर्तिक है, अनादि निधन शरीरमित ।
दग्-ज्ञान उपयोगी है जीव, यह जिनवरेन्द्रों ने कहा । ।१४8 ।।
णिद्दट्टो जिणवरिंदेहिं ।। १४४।।
५-१४४
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