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आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्ट पाहड़
स्वामी विरचित
अर्थ
जैसे ‘फणिराज ́ अर्थात् धरणेन्द्र है सो फण जो सहस्रफण उनमें जो मणि उनके
बीच लाल माणिक्य उसकी किरणों से 'विस्फुरित' अर्थात् दैदीप्यमान शोभा पाता
है वैसे निर्मल सम्यग्दर्शन का धारक जीव है सो जिनभक्ति सहित है इसलिए प्रवचन
जो मोक्षमार्ग का प्ररूपण उसमें सुशोभित होता है ।
भावार्थ
सम्यक्त्व सहित जीव की जिनप्रवचन में बड़ी अधिकता है। जहाँ-तहाँ शास्त्र में सम्यक्त्व ही की प्रधानता कही है ।।१४५ ।।
उत्थानिका
आगे सम्यग्दर्शन सहित लिंग है उसकी महिमा कहते हैं
जह तारायणसहियं ससहरबिंबं खमंडले विमले ।
भाविय तववयविमलं जिणलिंगं दंसणविसुद्धं ।। १४६ । ।
ज्यों विमल नभमंडल में सोहे, चन्द्र तारागण सहित।
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भावित विमल व्रत तप व दर्श विशुद्ध जिन का लिंग त्यों । । १४६ । ।
उत्थानिका
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अर्थ
जैसे निर्मल आकाशमंडल में ताराओं के समूह सहित चन्द्रमा का बिम्ब शोभा पाता है वैसे ही जिनशासन में दर्शन से विशुद्ध और भावित किये जो तप और व्रत उनसे निर्मल जिनलिंग है सो सुशोभित होता है ।
भावार्थ
जिनलिंग अर्थात् निर्ग्रथ मुनिवेष है वह यद्यपि तप, व्रतों से सहित निर्मल है, निर्दोष है तो भी सम्यग्दर्शन बिना शोभता नहीं, यदि सम्यक्त्व सहित हो तब ही अत्यन्त शोभायमान होता है । । १४६ ।।
आगे कहते हैं कि 'ऐसा जान दर्शनरत्न को धारण करो' - ऐसा उपदेश करते हैं :
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