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________________ 卐卐業卐業卐卐業卐業卐業業業卐業業 आचार्य कुन्दकुन्द * अष्ट पाहड़ भावार्थ सम्यग्दर्शन बिना पुरुष म तक तुल्य है । । १४३ ।। उत्थानिका स्वामी विरचित आगे सम्यक्त्व का महानपना कहते हैं जह तारायण चंदो मयराओ मयउलाण सव्वाणं । अहिओ तह सम्मत्तो रिसिसावयदुविहधम्माणं ।। १४४ ।। ज्यों चन्द्र तारागणों में, म गराज सब म गकुलों में । त्यों अधिक है सम्यक्त्व, ऋषि, श्रावक द्विविध ही धर्म में ।। १४४ । अर्थ जैसे ताराओं के समूह में चन्द्रमा अधिक है तथा 'म गकुल' अर्थात् पशुओं के समूह में जैसे 'म गराज' अर्थात् सिह सो अधिक है वैसे 'ऋषि' अर्थात् मुनि और श्रावक - ऐसे जो दो प्रकार के धर्म उनमें सम्यक्त्व है सो अधिक है। फिर कहते हैं भावार्थ व्यवहार धर्म की जितनी प्रवत्ति है उनमें सम्यक्त्व अधिक है, इसके बिना सब संसार मार्ग हैं, बंध के कारण हैं । । १४४ ।। उत्थानिका - === ५-१४२ जह फणिराओ सोहइ फणमणिमाणिक्ककिरणपरिप्फुरिओ । तह विमलदंसणधरो जिणभत्ती पवयणे जीवो ।। १४५ ।। धरणेन्द्र सोहे फणमणि माणिक्य, किरण से दीप्त ज्यों । प्रवचन में सोहे जीव त्यों, दर्शन विमल जिन भक्तियुत । । १४५ ।। 卐 翬糕糕糕糕糕糕糕糕糕糕糕糕糕卐縢業業
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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