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अष्ट पाहुड़ .
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स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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जिनमार्ग के मध्य अपने मन को रोक-यह संक्षेप है और बहुत निरर्थक प्रलाप रूप कहने से क्या !
भावार्थ इस प्रकार मिथ्यात्व का निरूपण किया वहाँ आचार्य कहते हैं कि 'बहुत निरर्थक वचनालाप से क्या ! इतना ही संक्षेप से कहते हैं-जो तीन सो तरेसठ कुवादी पाखंडी कहे उनका मार्ग छोड़कर और जिनमार्ग में मन को रोकना, अन्यत्र जाने न देना। यहाँ इतना विशेष और जानना-जो कालदोष से इस पंचम काल में अनेक पक्षपात करके मतातर हुए है उनको भी मिथ्या जान उनका प्रसंग न करना, सर्वथा एकांत का पक्षपात छोड़ अनेकांत रूप जिनवचन का शरण लेना' ।।१४२।।
उत्थानिका
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आगे सम्यग्दर्शन का निरूपण करते हैं, वहाँ कहते हैं कि 'सम्यग्दर्शन रहित
प्राणी है वह चलता म तक है' :जीवविमुक्को सवओ दंसणमुक्को य होइ चलसवओ। सवओ लोय अपज्जो लोउत्तरयम्मि चलसवओ।। १४३|| होता है जीवविमुक्त शव, दर्शनरहित चलशव अरे ! | शव लोक में है अपूज्य, चलशव होता लोकात्तर विर्षे । ।१४३।।
अर्थ लोक में जो जीव से रहित हो उसको 'शव' अर्थात् म तक-मुरदा कहते हैं वैसे ही जो सम्यग्दर्शन रहित पुरुष है वह चलता म तक है तथा म तक तो लोक में अपूज्य है, अग्नि से दग्ध किया जाता है अथवा प थ्वी में गाड़ दिया जाता है और दर्शन रहित चलता मुरदा है सो लोकोत्तर जो मुनि सम्यग्द ष्टि उनमें अपूज्य है वे उसकी वंदनादि नहीं करते हैं, यदि मुनिवेष धारण करे तो भी संघ से बाहर रखते हैं अथवा वह परलोक में निंद्य गति पाकर अपूज्य होता है।
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