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________________ अष्ट पाहुए . sarata स्वामी विरचित आचार्य कुन्दकुन्द ADOO |ROO Deo/S Dog/ 1000/ HDod कई कहते है-जीव नित्य है यह कौन जाने और कई कहते हैं कि 'अनित्य हैं यह कौन जाने' इत्यादि संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय रूप हुए विवाद करते हैं। उनके संक्षेप से सड़सठ भेद किये हैं। (४) कई विनयवादी हैं, वे कई कहते हैं कि 'देव की विनय से सिद्धि है', कई कहते हैं-गुरु की विनय से सिद्धि है, कई कहते हैं-माता की विनय से सिद्धि है, कई कहते हैं-पिता की विनय से सिद्धि है, कई कहते हैं-राजा की विनय से सिद्धि है और कई कहते हैं कि 'सबकी विनय से सिद्धि है' इत्यादि विवाद करते हैं। उनके संक्षेप से बत्तीस भेद किये हैं। इस प्रकार सर्वथा एकान्तियों के तीन सौ तरेसठ भेद संक्षेप से कहे हैं, विस्तार करने पर बहुत होते हैं। उनमें कई ईश्वरवादी हैं, कई कालवादी हैं, कई स्वभाववादी हैं, कई नियमवादी हैं और कई आत्मवादी हैं, जिनका स्वरूप गोम्मटसारादि ग्रंथों से जानना-ऐसे मिथ्यात्व के भेद हैं।।१३७ ।। 聯繫听器听听器听器听听器听听听听听听听器巩巩巩巩業 उत्थानिका 先养养樂業禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁 आगे कहते हैं कि 'अभव्य जीव अपनी प्रक ति को छोड़ता नहीं अतः उसका मिथ्यात्व मिटता नहीं' :ण मुयइ पयडि अभव्वो सुट्ठ वि आयण्णिऊण जिणधम्म। गुडदुद्धं पि पिबंता ण पण्णया णिव्विसा होति।।१३४।। भलीभाँति सुन जिनधर्म भी, प्रक ति अभव्य न छोड़ता। गुड़दुग्ध भी पीते हुए, पन्नग नहीं निर्विष बने ।।१३8 ।। अर्थ अभव्य जीव है सो जिनधर्म को भली प्रकार सुनकर भी जो अपनी प्रक ति-स्वभाव है उसको नहीं छोड़ता है। यहाँ द ष्टान्त-जो सर्प है वह गुड़ सहित दूध को पीता हुआ भी विष रहित नहीं होता। 樂樂業先崇明崇明崇明藥冬寨寨寨崇崇明崇勇崇勇
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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