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आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्ट पाहड़
स्वामी विरचित
भावार्थ
जो कारण पाकर भी नहीं छूटता उसको प्रक ति स्वभाव कहते हैं सो अभव्य
का स्वभाव यह है कि अनेकान्तमयी है तत्त्व का स्वरूप जिसमें ऐसा जो वीतराग-विज्ञान स्वरूप जिनधर्म जो कि मिथ्यात्व को मेटने वाला है उसका
भली प्रकार स्वरूप सुनकर भी उसका मिथ्यात्व रूप स्वभाव बदलता नहीं है सो यह वस्तुस्वरूप है, किसी का किया हुआ नहीं है। यहाँ उपदेश अपेक्षा ऐसा जानना कि 'अभव्य रूप प्रक ति तो सर्वज्ञगम्य है तथापि अभव्य की प्रकति के समान प्रकति न रखना, मिथ्यात्व को छोड़ना' - यह उपदेश है । । १३8 ।।
उत्थानिका
आगे इसी अर्थ को दढ़ करते हैं :
मिच्छत्तछण्णदिट्ठी दुद्धिया दुम्मएहिं दोसेहिं । धम्मं जिणपण्णत्तं अभव्वजीवो ण रोचेदि । । १३१ ।। मिथ्यात्व आव त द ष्टियुक्त, अभव्य दुर्मत दोष से ।
दुर्बुद्धि से उसे जिनप्रणीत जो, धर्म वह रुचता नहीं । । १३१ । ।
अर्थ
जो अभव्य जीव है उसे जो जिनप्रणीत धर्म है वह नहीं रुचता है, उसकी वह
श्रद्धा नहीं करता,रुचि नहीं करता क्योंकि कैसा है अभव्य जीव - दुर्मत जो सर्वथा एकान्तियों के द्वारा प्ररूपित अन्यमत, वे ही हुए दोष उनसे और अपनी दुर्बुद्धि से मिथ्यात्व से आच्छादित है बुद्धि जिसकी ऐसा है ।
टि0- 1. 'म0टी0' में इस प्रथम पंक्ति में 'मिच्छत्तछण्णदिट्ठी दुद्धी रागगहगहियचित्ते हि' पाठ देकर उसका अर्थ किया है-'अभव्य जीव की दष्टि अर्थात् श्रद्धा (दनिगुण) मिथ्यात्व कर्म के उदय से आवत होती है। उसकी बुद्धि (ज्ञानगुण) दूषित अर्थात् मिथ्याज्ञान रूप परिणत होती है और उसका चित्त (चारित्रगुण) राग रूपी पिच के द्वारा पछाड़ा हुआ होता है । '
इस पंक्ति के दुम्मएहिं दोसेहिं' पाठ के स्थान पर 'वी प्रति' में 'रागदोसेहि य चित्तेहि' (सं)- रागद्वेषैः च चित्तैः । अर्थ - रागद्वेष युक्त चित्त वाला।) एवं 'श्रु०टी०' में रागगहगहिय चितेहि (सं)-रागग्रहग्रहीतचितैः । अर्थ-राग रूपी पिच से ग्रहीत चित्त वाला । ) पाठ है ।
(५-१३८
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