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________________ 秦業業業業業業業業業業 आचार्य कुन्दकुन्द * अष्ट पाहड़ उत्थानिका आगे उस दया ही का उपदेश करते हैं स्वामी विरचित जीवाणमभयदाणं देहि मुणी ! पाण भूद सत्ताणं । परंपरा कल्लाणसुहणिमित्तं तू भूत-प्राणि - जीव-सत्त्व को त्रिविध शुद्धि से हे मुनि ! | - दे अभयदान कि होवे जिससे, परम्परा कल्याण सुख । । १३६ ।। तिविहसुद्धीए । । १३६ ।। अर्थ हे मुने ! तू जीवों को और प्राणी, भूत और सत्त्व - इनको अपने परम्परा से कल्याण और सुख के निमित्त मन-वचन-काय की शुद्धता से अभयदान दे। भावार्थ जीव तो पंचेन्द्रियों को कहते हैं, प्राणी विकलत्रय को कहते हैं, भूत वनस्पति पाता है- यह उपदेश है । । १३६ ।। को कहते हैं और सत्त्व पथ्वी, अप्, तेज, वायु इनको कहते हैं। इन सब जीवों को अपने समान जान अभयदान देने का उपदेश है, इससे शुभ प्रकतियों का बंध होने से अभ्युदय का सुख होता है और परम्परा से तीर्थंकर पद पाकर मोक्ष उत्थानिका आगे यह जीव षट् अनायतन का प्रसंग करके मिथ्यात्व से जो संसार में भ्रमण करता टि0- 1. सम्बन्धित लोक है, उसका स्वरूप कहते हैं । वहाँ प्रथम ही मिथ्यात्व के भेदों को कहते हैं असियसय किरियवाई अक्किरियाणं च होइ चुलसीदी। सत्तट्टी अण्णाणी वेणईया होंति बत्तीसा ।। १३७ ।। द्विञ्चितुरिन्द्रियाः प्राणाः, भूतास्त तरवः स्मताः । जीवाः पचेन्द्रिया ज्ञेया: षा: सत्त्वाः प्रकीर्तिताः । । ५-१३५ 卐卐卐業 - 卐卐卐 翬糕糕糕糕糕糕糕糕糕糕糕糕糕卐縢業業
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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