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आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्ट पाहड़
स्वामी विरचित
भ्रमते अमित भव उदधि तूने, योग सुख के हेतु से।
सब जीव प्राणाहार दशविध, किया मन-वच - काय से । । १३४ ।।
अर्थ
हे जीव ! तूने अनन्त भवसागर में भ्रमते हुए सकल त्रस स्थावर जीवों के दस
प्रकार के प्राणों का आहार, भोग सुख के कारण के लिए मन-वचन-काय से किया ।
भावार्थ
अनादि काल से जिनमत के उपदेश के बिना अज्ञानी हुए तूने त्रस-स्थावर
जीवों के प्राणों का आहार किया इसलिए अब जीव का स्वरूप जानकर जीवों की दया पाल और भोगाभिलाष छोड़ यह उपदेश है । । १३४।।
उत्थानिका
फिर कहते हैं कि 'इस प्रकार प्राणियों की हिंसा से संसार में भ्रमण करके दुःख
पाया :
पाणिवहेहि महाजस ! चउरासीलक्खजोणिमज्झम्मि ।
उप्पज्जंत मरंतो पत्तोसि णिरंतरं दुक्खं ।। १३५ ।।
प्राणि के वध से हे महायश ! योनि लख चौरासी में ।
पाया निरन्तर दुःख तूने, जनमते-मरते हुए । ।१३५ । ।
अर्थ
हे मुने ! हे महायश ! तूने प्राणियों के घात से चौरासी लाख योनि के मध्य उपजते-मरते निरन्तर दुःख को पाया ।
भावार्थ
जिनमत के उपदेश बिना जीवों की हिंसा से यह जीव चौरासी लाख योनियों में उत्पन्न होता है-मरता है, हिंसा से कर्मबंध होता है, कर्मबंध के उदय से उत्पत्ति-मरण
रूप संसार होता है, इस प्रकार जन्म-मरण का दुःख सहता है इसलिए जीवों की दया का उपदेश है । । १३५ ।।
५-१३४
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