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आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्ट पाहड़
त्रय योग से षट् अनायतन तज, कर दया छहकाय नित ।
मुनिवर ! तू भा महासत्त्व को, भाया न जिसको पूर्व में । । १३३ ।।
स्वामी विरचित
अर्थ
हे मुनिवर ! तू छह काय के जीवों की दया कर तथा छह अनायतन का परिहार
कर-उन्हें छोड़, कैसे छोड़-मन, वचन, काय के योगों से छोड़ तथा अपूर्व अर्थात् जो पूर्व में नहीं भाया ऐसा महासत्त्व अर्थात् सब जीवों में व्यापक महासत्त्व जो चेतनाभाव उसको भा ।
भावार्थ
अनादि काल से इस जीव ने जीव का स्वरूप चेतनास्वरूप नहीं जाना इसलिए
जीवों की हिंसा की अतः यह उपदेश है कि 'अब जीव आत्मा का स्वरूप जान और
छह काय के जीवों की दया कर ।' तथा अनादि ही से आप्त, आगम और पदार्थ
का तथा इनका सेवन करने वालों का स्वरूप जाना नहीं इसलिए अनाप्त आदि छह
अनायतन जो मोक्षमार्ग के स्थान नहीं हैं उनको भला जानकर सेवन किया इसलिए यह उपदेश है कि 'अनायतन का परिहार कर । जीव का स्वरूप और स्वरूप के
उपदेशक इन दोनों को ही पूर्व में तूने जाना नहीं और भाया नहीं इसलिए अब भा' - ऐसा उपदेश है । । १३३ ।।
उत्थानिका
आगे कहते हैं कि 'जीव का तथा उपदेश करने वाले का स्वरूप जाने बिना सब
जीवों के प्राणों का आहार किया - ऐसा दिखाते हैं :
दसविहपाणाहारो 1
अनंतभवसायरे
भमंतेण ।
भोयसुहकारणट्टं कदो य तिविहेण सयलजीवाणं ।। १३४ । ।
टि0- 1. 'म0 टी0' में इस प्राकृत पाठ की सं0 छाया 'दाविधप्राणानामपहार:' देकर गाथा का अर्थ
किया है कि 'अनन्त भवसागर में भ्रमण करते हुए तूने सर्व जीवों के दस प्रकार के प्राणों
का अपहरण अर्थात् घात किया है।'
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५-१३३
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