________________
卐卐業卐業卐業卐業業卐業業卐業業業業
आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्ट पाहड़
स्वामी विरचित
जब तक जरा न आक्रमे, रोगाग्नि से दहे तन कुटी ।
जब तक न इन्द्रिय बल घटे, तब तक तू कर ले आत्महित । ।१३२ । ।
अर्थ
हे मुने ! जब तक तेरे जरा - व वपना नहीं आता तथा रोग रूपी अग्नि तेरी देह
को दग्ध नहीं करती और जब तक तेरे इन्द्रियों का बल नहीं घटता तब तक अपने हित को कर ।
भावार्थ
व द्ध अवस्था में रोगों से देह जर्जरित हो जाता है और इन्द्रियाँ क्षीण हो जाती
हैं तब असमर्थ हुआ इस लोक के कार्य उठना-बैठना भी नहीं कर सकता तो परलोक सम्बन्धी तपश्चरणादि तथा ज्ञानाभ्यास और स्वरूप का अनुभवादि कार्य कैसे करे इसलिए ये उपदेश है कि 'जब तक सामर्थ्य है तब तक अपना हित रूप कार्य कर लो' । । १३२ ।।
उत्थानिका
आगे अहिंसा धर्म का उपदेश करते हैं
छज्जीव छडायदणं 1 णिच्चं मणवयणकायजोएहिं ।
कुण दय परिहर मुणिवर ! भावि अपुव्वं महासत्तं ।। १३३ ।।
टि)- 1. यहाँ 'मूल प्रति' का ही अनुसरण करते हुए एवं उसके पाठ को न बदलते हुए 'छह आयतन'
अर्थ वाचक 'छडायदणं' पाठ ही दिया गया है जबकि गाथार्थ में 'छह अनायतन' पद है, 'म0 टी0' का 'छह अनायतन' अर्थवाचक 'छणायदणं' पाठ ही उपयुक्त जंचता है।
टि0- 2. ‘अन्य प्रतियों' में इस पंक्ति में आए हुए 'महासत्तं ' ब्द के
'महासत्त !' ब्द है ।
स्थान पर सम्बोधन सूचक
ब्द
'म0टी0' में 'महासत्त' ब्द को सम्बोधन सूचक 'मुणिवर !' 'महासत्त मुणिवर' का अर्थ है महाबल लिन् मुनिवर !' किया है। पंक्ति के ‘भावि अपुव्वं’ पाठ को उन्होंने जुड़ा हुआ 'भाविअपुव्वं'
का विषण करके
इसके अतिरिक्त इसी
(सं० - भावितपूर्वं ) - ऐसा
देकर उसे 'छणायदणं परिहर' का विषण करते हुए अर्थ किया है कि 'पूर्व में भाए हुए
अर्थात् ग्रहण किए हुए छह अनायतनों का तू परिहार कर ।' ५-१३२ 卐卐業
*縢糕糕糕糕糕糕糕糕 ≡ 縢糕糕糕
卐業業卐業業